________________ तृतीय वक्षस्कार] [139 पशु-पक्षी, देव तथा मनुष्यकृत उपसर्ग-विघ्न कभी भी दुःख उत्पन्न नहीं कर सकते थे। उस उत्तम मणि को धारण करनेवाले मनुष्य का संग्राम में किसी भी शस्त्र द्वारा वध किया जाना शक्य नहीं था। उसके प्रभाव से यौवन सदा स्थिर रहता था, बाल एवं नाखून नहीं बढ़ते थे। उसे धारण करने से मनुष्य सब प्रकार के भयों से विमुक्त हो जाता था।) उस मणिरत्न को राजा भरत ने छत्ररत्न के बस्तिभाग में—शलाकारों के बीच में स्थापित किया। राजा भरत के साथ गाथापतिरत्न-सैन्यपरिवार हेतु खाद्य, पेय आदि की समीचीन व्यवस्था करनेवाला उत्तम गृहपति था। वह अपनी अनुपम विशेषता-योग्यता लिये था। शिला की ज्यों अति स्थिर चर्मरत्न पर केवल वपन मात्र द्वारा शालि-कलम संज्ञक उच्चजातीय चावल, जौ, गेहूँ, मूग, उर्द, तिल, कुलथी, षष्टिक-तण्डुलविशेष, निष्पाव, चने, कोद्रव-कोदों, कुस्तु भरी-धान्यविशेष, कंगु, वरक, रालक-मसूर आदि दालें, धनिया, वरण आदि हरे पत्तों के शाक, अदरक, मूली, हल्दी, लौकी, ककड़ी, तुम्बक, बिजौरा, कटहल, पाम, इमली ग्रादि समग्र फल, सब्जी प्रादि पदार्थों को उत्पन्न करने में वह कुशल थासमर्थ था। सभी लोग उसके इन गुणों से सुपरिचित थे। उस श्रेष्ठ माथापति ने उसी दिन उप्त--बोये हुए, निष्पादित-पके हुए, पूत-तुष, भूसा आदि हटाकर साफ किये हुए सब प्रकार के धान्यों के सहस्रों कुभ राजा भरत को समर्पित किये / राजा भरत उस भीषण वर्षा के समय चर्मरत्न पर आरूढ रहा-स्थित रहा, छत्ररत्न द्वारा आच्छादित रहा, मणिरत्न द्वारा किये गये प्रकाश में सात दिन-रात सुखपूर्वक सुरक्षित रहा / उस अवधि में राजा भरत को तथा उसकी सेना को न भूख ने पीडित किया, न उन्होंने दैन्य का अनुभव किया और न वे भयभीत और दुःखित ही हुए। आपात किरातों की पराजय 77. तए ण तस्स भरहस्स रण्णो सत्तरत्तंसि परिणममाणसि इमेआरूवे अभत्थिए चितिए पस्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था- केस णं भो ! अपस्थिअपत्थए दुरंतपंतलक्खणे (होणपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरि-) परिवज्जिए जे णं ममं इमाए एप्राणुरूवाए जाव अभिसमण्णागयाए उप्पि विजयखंधावारस्स जुगमुसलमुट्ठि-(पमाणमेत्ताहि धाराहि अोघमेघं सत्तरत्तं) वासं वासइ / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो इमेप्रारूवं अभत्थिन चितियं पत्थिमणोगयं संकप्पं समुप्पण्णं जाणित्ता सोलस देवसहस्सा सण्णज्झिउं पवत्ता यावि होत्था। तए णं ते देवा सण्णद्धबद्धवंम्मिश्रकवया जाव' गहियाउहप्पहरणा जेणेव ते मेहमुहा णागकुमारा देवा तेणेव उवागच्छंति 2 त्ता मेहमुहे णागकुमारे देवे एवं वयासो-'हं भो ! मेहमुहा गागकुमारा! देवा अप्पत्थिनपत्थगा (दुरंतपंतलक्खणा होणपुण्णचाउद्दसा हिरिसिरि-) परिवज्जित्रा किणं तुब्भि ण याणह भरहं रायं चाउरंतचक्कट्टि महिडिश्र (महज्जुइयं जाव महासोक्खं णो खलु एस सक्को केणइ देवेण बा दाणवेण वा किण्णरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा सत्थप्पओगेण वा अम्गिप्पओगेण वा मंतप्पभोगेण वा) उबद्दवित्तए वा पडिसेहित्तए वा तहावि णं तुन्भे भरहस्स रण्णो विजयखंधावारस्स उप्पि जुगमुसल१. देखें सूत्र संख्या 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org