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________________ प्रभृति बहुमूल्य वस्तुओं का भी प्रधानता से विक्रय किया जाता था / वास्तुकला की दृष्टि से यह नगर बहुत ही भव्य बसा हुआ था। प्राकारों, फाटकों, कंगूरेदार दुर्ग और प्राचीरों सहित शिल्पियों ने कमनीय कल्पना से इसे अभिकल्पित किया था। चारों ओर इसमें पारगामी सड़कें थीं। यह नगर सुन्दर सरोवर और उद्यानप्रधान या। यहां के निवासी सुखी और समृद्ध थे। रामायण की दृष्टि से मिथिला बहुत ही स्वच्छ और मनोरम नगर था। इसके सन्निकट एक निर्जन जंगल था। महाभारत की दृष्टि से यह नगर बहुत ही सुरक्षित था। यहां के निवासी पूर्ण स्वस्थ थे तथा प्रतिदिन उत्सवों में भाग लिया करते थे। जातक की दृष्टि से विदेह राजाओं में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी।" वाराणसी के राजा ने यह निर्णय लिया था कि वह अपनी पुत्री का विवाह ऐसे राजकुमार से करेगा जो एकपत्नीव्रत का पालन करेगा। मिथिला के राजकुमार सुरुचि के साथ वार्ता चल रही थी। एकपत्नीव्रत की बात सुनकर वहाँ के मन्त्रियों ने कहा कि मिथिला का विस्तार सात योजन है, समूचे राष्ट्र का विस्तार 300 योजन है, हमारा राज्य बहुत बड़ा है / ऐसे राज्य के राजा के अन्तःपुर में 16,000 रानियां अवश्य होनी चाहिये / 22 महाभारत के अनुसार मिथिला का राजा जनक वस्तुतः विदेह था। वह मिथिला नगरी को प्राग से जलते हुए तथा अपने राजप्रासादों को झुलसते हुए देखकर भी कह रहा था कि मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है। रामायण में मिथिला को जनकपुरी कहा है। विविधतीर्थकल्प में इस देश को तिरहुत्ति कहा है।४ और मिथिला को जगती (प्राकृत में जगयी) कहा है / 5 इसके सन्निकट ही महाराजा जनक के भ्राता कनक थे, उनके नाम से कनकपुर बसा था।२६ कल्पसूत्र के अनुसार मिथिला से जैन श्रमणों की एक शाखा मैथिलिया निकली / 27 श्रमण भगवान महावीर ने मिथिला में छह चातुर्मास बिताये थे और अनेक बार उनके चरणारविन्दों से बह धरती पावन हुई थी / 26 पाठवें गणधर अकम्पित की यह जन्मभूमि थी।२६ प्रत्येकबुद्ध 17 बील, रोमांटिक लीजेंड ऑव शाक्य बुद्ध, पृ. 30 18. (क) जातक VI. 46 (ख) महाभारत, III. 206, 6-1 19. ग्रिफिथ द्वारा अनुदित रामायण, अध्याय XLIII, पृ. 68 20. महाभारत, वनपर्व 206, 6-9 21. जातक IV. 316 एवं आगे 22. जातक IV. 489, पृ. 521-522 23. महाभारत XII, 17, 18-19, 219, 50 तुलना कीजिए-उत्तराध्ययन के 9 वें अध्ययन से, देखिए- उत्तराध्ययन की प्रस्तावना / (आ. प्र. समिति, व्यावर) 24. संपइकाले तिरहुत्ति देसोत्ति भण्णई। ---विविधतीर्थकल्प, प. 32 25. विविधतीर्थकल्प, पृ. 32 26. विविधतीर्थकल्प, पृ. 32 27. कल्पसूत्र 213, पृ. 198 -श्रीदेवेन्द्र मुनि द्वारा सम्पादित 28. कल्पसूत्र 121, पृ 178 29. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 644 [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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