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________________ द्वितीय वक्षस्कार . तस्स ईसाणस्स, देविदस्स, देवरण्णो पासणं चलइ / तए णं से ईसाणे (देविदे,) देवराया आसणं चलिनं पासइ, पासित्ता प्रोहि पउंजइ, पउंजइत्ता भगवं तित्थगरं ओहिणा प्राभोएइ, आभोएइत्ता जहा सक्के निगपरिवारेणं भाणेअन्वो (सद्धि संपरिवुडे ताए उक्किट्ठाए देवगईए तिरिअमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झमझेणं जेणेव अट्ठावयपव्वए, जेणेव भगवओ तित्थगरस्स सरीरए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विमणे, णिराणंदे, अंसुपुण्ण-णयणे तित्थयरसरीरयं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता पच्चासण्णे, पाइदूरे सुस्सूसमाणे) पज्जुवासइ / एवं सब्वे देविदा (सणंकुमारे, माहिदे, बंभे, लंतगे, महासुक्के, सहस्सारे, आणए, पाणए, आरणे,) अच्चुए णिअगपरिवारेणं भाणिअन्वा, एवं जाव' भवणवासोणं इंदा वाणमंतराणं सोलस जोइसिआणं दोणि निअगपरिवारा अन्वा। [42] उस समय उत्तरार्ध लोकाधिपति, अट्ठाईस लाख विमानों के स्वामी, शूलपाणिहाथ में शूल लिए हुए, वृषभवाहन-बैल पर सवार, निर्मल आकाश के रंग जैसा वस्त्र पहने हुए, (यथोचित रूप में माला एवं मुकुट धारण किए हुए, नव-स्वर्ण-निर्मित मनोहर कुंडल पहने हुए, जो कानों से गालों तक लटक रहे थे, अत्यधिक समृद्धि, द्युति, बल, यश, प्रभाव तथा सुखसौभाग्य युक्त, देदीप्यमान शरीर युक्त, सब ऋतुओं के फूलों से बनी माला, जो गले से घुटनों तक लटकती थी, धारण किए हुए, ईशानकल्प में ईशानावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में ईशान-सिंहासन पर स्थित, अट्ठाईस लाख वैमानिक देवों, अस्सी हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिश-गुरुस्थानीय देवों, चार लोकपालों, परिवार सहित आठ पट्टरानियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापतियों, अस्सी-अस्सी हजार चारों दिशाओं के प्रात्मरक्षक देवों तथा अन्य बहुत से ईशानकल्पवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरपतित्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञेश्वरत्व, सेनापतित्व करता हुआ देवराज ईशानेन्द्र निरवच्छिन्न नाट्य, गीत, निपुण बादकों द्वारा बजाये गये बाजे, वीणा आदि के तन्तुवाद्य, तालवाद्य, त्रुटित, मृदंग आदि के तुमुलघोष के साथ) विपुल भोग भोगता हुआ विहरणशील था-रहता था / ईशान (देवेन्द्र) का आसन चलित हुआ / ईशान देवेन्द्र ने अपना प्रासन चलित देखा। वैसा देखकर अवधि-ज्ञान का प्रयोग किया। प्रयोग कर भगवान् तीर्थकर को अवधिज्ञान द्वारा देखा / देखकर (शकेन्द्र की ज्यों अपने देव-परिवार से संपरिवृत उत्कृष्ट गति द्वारा तिर्यक्-लोकस्थ असंख्य द्वीपसमुद्रों के बीच से चलता हुआ जहाँ अष्टापद पर्वत था, जहाँ भगवान् तीर्थकर का शरीर था, वहाँ पाया / आकर उसने विमन-उदास, निरानन्द--प्रानन्द-रहित, आँखों में आँसू भरे तीर्थंकर के शरीर को तीन बार दक्षिण-प्रदक्षिणा की। वैसा कर न अधिक निकट, न अधिक दर संस्थित हो पर्यपासना की। उसी प्रकार) सभी देवेन्द्र (--सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लांतक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत देव लोकों के अधिपति---इन्द्र) अपने-अपने परिवार के साथ वहाँ आये / उसी प्रकार भवनवासियों के बीस इन्द्र, वानव्यन्तरों के सोलह इन्द्र, ज्योतिष्कों के दो इन्द्र-सूर्य तथा चन्द्रमा अपने-अपने देव-परिवारों के साथ वहाँ अष्टापद पर्वत पर आये। --.----. 1. देखें सूत्र यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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