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________________ 68] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अण्णेहि अ बहूहि सोहम्म-कप्प-वासोहि वेमाणिएहि देवेहि, देवीहि अ सद्धि संपरिबुडे ताए उक्किट्ठाए, (तुरिआए, चवलाए, चंडाए, जयणाए, उद्घ आए, सिग्घाए, दिव्वाए देवगईए वोईवयमाणे) तिरिअमसंखेज्जाणं दोवसमुद्दाणं मज्झमझेणं जेणेव अट्ठावयपव्वए, जेणेव भगवो तित्थगरस्स सरीरए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विमणे, जिराणंदे, अंसुपुण्ण-णयणे तित्थयर-सरीरयं तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता पच्चासण्णे, णाइदूरे सुस्सूसमाणे, (णमंसमाणे, अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे,) पज्जुवासइ। [41] जिस समय कौशलिक, अर्हत् ऋषभ कालगत हुए, जन्म, वृद्धावस्था तथा मृत्यु के बन्धन तोड़कर सिद्ध, बुद्ध, (मुक्त, अन्तकृत्, परिनिर्वृत्त) तथा सर्वदुःख-विरहित हुए, उस समय देवेन्द्र, देवराज शक्र का आसन चलित हुआ / देवेन्द्र, देवराज शक ने अपना पासन चलित देखा, अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर भगवान् तीर्थंकर को देखा / देखकर वह यों बोला-जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में कौशलिक, अर्हत् ऋषभ ने परिनिर्वाण प्राप्त कर लिया है, अत: अतीत, वर्तमान, अनागत-भावी देवराजों, देवेन्द्रों शक्रों का यह जीत--व्यवहार है कि वे तीर्थकरों के परिनिर्वाणमहोत्सव मनाएं। इसलिए मैं भी तीर्थंकर भगवान् का परिनिर्वाण-महोत्सव आयोजित करने हेतु जाऊँ। यों सोचकर देवेन्द्र ने वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर वह अपने चौरासी हजार सामानिक देवों, तेतीस हजार त्रास्त्रिशक-गुरुस्थानीय देवों, परिवारोपेत अपनी पाठ पट्टरानियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, चारों दिशाओं के चौरासी-चौरासी हजार प्रात्मरक्षक देवों और भी अन्य बहुत से सौधर्मकल्पवासी देवों एवं देवियों से संपरिवृत, उत्कृष्ट-आकाशगति में सर्वोत्तम, त्वरित –मानसिक उत्सुकता के कारण चपल, चंड—क्रोधाविष्ट की ज्यों अपरिश्रान्त, जवन–परमोत्कृष्ट वेग युक्त, उद्ध त-दिगंतव्यापी रज की ज्यों अत्यधिक तीव्र, शीघ्र तथा दिव्य-देवोचित गति से चलता हा तिर्यक-लोकवर्ती असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हा जहाँ अष्टापद पर्वत और जहाँ भगवान् तीर्थकर का शरीर था, वहाँ आया। उसने विमन-उदास, निरानन्द-आनन्द रहित, अश्रुपूर्णनयन आँखों में आँसू भरे, तीर्थंकर के शरीर को तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की। वैसा कर, न अधिक निकट न अधिक दूर स्थित हो, (नमस्कार किया, विनयपूर्वक हाथ जोड़े,) पर्युपासना की। 42. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविदे, देवराया, उत्तरद्धलोगाहिवई, अट्ठावीसविमाणसयसहस्साहिवई, सूलपाणी, वसहवाहणे, सुरिंदे, अयरंबरवरवत्थधरे, (आलइअमालमउडे, णवहेमचारुचित्तचंचलकुडल विलिहिज्जमाणगल्ले, महिड्डीए, महज्जुईए, महाबले, महायसे, महाणुभावे, महासोक्खे, भासुरबोंदी, पलंबवणमालधरे ईसाणकप्पे ईसाणवडेंसए विमाणे सुहम्माए सभाए ईसाणंसि सिंहासणंसि से णं अट्ठावीसाए विमाणावाससयसाहस्सीणं असीईए सामाणिप्रसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, अट्ठण्हं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणीबाणं, सत्तण्हं अणोनाहिबईणं, चउण्हं असीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, असि च ईसाणकप्पवासोणं देवाणं देवीण य अाहेवच्चं, पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्टित्तं, महत्तरगत्तं, आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयायणट्टगीअवाइअतंतोतलतालतुडिअघणमुइंगपडपडहवाइअरवेणं) विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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