________________ तृतीय पक्षकार [149 जएणं विजएणं वद्धाति 2 ता एवं वयासी-अभिजिए णं देवाणुप्पिा ! (केवलकल्पे भरहे वासे उत्तरेणं चुल्लाहमवंतमेराए तं अम्हे देवाणुपियाणं विसयवासी) अम्हे देवाणुप्पियाणं आणतिकिकरा इति कटु तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिा ! अम्हं इमं (इमेप्रारूवं पोइदाणंति क१) विणमी इत्थीरयणं णमी रयणाणि समप्पेइ / तए णं से भरहे राया (नमिविनमीणं विज्जाहरराईणं इमेयारूवं पोइदाणं पडिच्छइ 2 ता नमिविनमीणं विज्जाहरराईणं सक्कारेइ सम्माणेइ 2 त्ता) पडिविसज्जेइ 2 त्ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ 2 ता मज्जणधरं अणुपविसइ 2 ता भोप्रणमंडवे जाव' नमिविनमीणं विज्जाहरराईणं अट्टाहिमहामहिमा। तए णं से दिव्वे चक्करयणे पाउहघरसालानो पडिणिक्खमइ जाव' उत्तरपुरस्थिमं दिसि गंगादेवीभवणाभिमुहे पयाए प्रावि होत्था, सच्चेव सव्वा सिंधुवत्तव्वया जाव नवरं कुभट्ठसहस्सं रयणचित्तं णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताणि अदुवे कणगसीहासणाई सेसं तं चेव जाव महिमत्ति। [80] राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को दक्षिण दिशा में वैताढय पर्वत की ओर जाते हुए देखा / वह बहुत हर्षित एवं परितुष्ट हुआ / वह वैताढय पर्वत की उत्तर दिशावर्ती तलहटी में आया / वहाँ बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा श्रेष्ठ नगर सदृश सैन्यशिविर स्थापित किया। वहाँ वह पौषधशाला में प्रविष्ट हुआ। श्रीऋषभ स्वामी के कच्छ तथा महाकच्छ नामक प्रधान सामन्तों के पुत्र नमि एवं विनमि नामक विद्याधर राजाओं को उद्दिष्ट कर उन्हें साधने हेतु तेले की तपस्या स्वीकार की। पौषधशाला में (तेले की तपस्या में विद्यमान) नमि, विनमि विद्याधर राजाओं का मन में ध्यान करता हुआ वह स्थित रहा। राजा की तेले की तपस्या जब परिपूर्ण होने को आई, तब नमि, विनमि विद्याधर राजाओं को अपनी दिव्य मति--दिव्यानुभाव-जनित ज्ञान द्वारा इसका भान हुआ / वे एक दूसरे के पास आये, परस्पर मिले और कहने लगे—जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है / अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती विद्याधर राजाओं के लिए यह उचित है-परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें। इसलिए हम भी राजा भरत को अपनी ओर से उपायन उपहृत करें। यह सोचकर विद्याधरराज विनमि ने अपनी दिव्य मति से प्रेरित होकर चक्रवर्ती राजा भरत को भेंट करने हेतु सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न लिया / स्त्रीरत्न-परम सुन्दरी सुभद्रा का शरीर मानोन्मान प्रमाणयुक्त -दहिक फैलाव, वजन, ऊँचाई आदि की दृष्टि से वह परिपूर्ण, श्रेष्ठ तथा सर्वांगसुन्दर था। वह तेजस्विनी थी, रूपवती एवं लावण्यमयी थी। वह स्थिर यौवन युक्त थी-उसका यौवन अविनाशी था / उसके शरीर के केश तथा नाखून नहीं बढ़ते थे / उसके स्पर्श से सब रोग मिट जाते थे। वह बल-वृद्धिकारिणी थी-उसके परिभोग से परिभोक्ता का बल, कान्ति बढ़ती थी / ग्रीष्म ऋतु में वह शीत- . स्पर्शा तथा शीत ऋतु में उष्णस्पर्शा थी / 1. देखें सूत्र 79 2. देखें सूत्र 50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org