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________________ 2. गृहपति-यह चक्रवर्ती के घर को समुचित व्यवस्था करता है / जितने भी धान्य, फल और शाकसब्जियां हैं, उनका यह निष्पादन करता है। 3. पुरोहित-गृहों को उपशान्ति के लिये उपक्रम करता है। 4. हस्ती---यह बहुत ही पराक्रमी होता है और इसकी गति बहुत वेगवती होती है। 5. अश्व-यह बहत ही शक्तिसम्पन्न और अत्यन्त वेगवान होता है। 6. बकि-यह भवन आदि का निर्माण करता है। जब चक्रवर्ती दिगविजय के लिये तमिस्रा गुफा में से जाते हैं उस समय उन्मग्न जला और निमग्नजला इन दो नदियों को पार करने के लिये सेतु का निर्माण करता है, जिन पर से चक्रवर्ती की सेना नदी पार करती है। 7. स्त्री-यह कामजन्य सुख को देने वाली होती है। 8. चक्र—यह सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों में श्रेष्ठ होता है तथा दुर्दम शत्रु पर भी वियज दिलवाने में पूर्ण समर्थ होता है। 9. छत्र-यह छत्र विशेष प्रकार को धातुपों से अलंकृत और कई तरह के चिह्नों से मंडित होता है, जो चक्रवर्ती के हाथों का स्पर्श पाकर बारह योजन लम्बा-चौड़ा हो जाता है। जिससे धूप, हवा और वर्षा से बचाव होता है। 10. चर्म-बारह योजन लम्बे-चौड़े छत्र के नीचे प्रात:काल शालि आदि जो बीज बोये जाते हैं, वे मध्याह्न में पककर तैयार हो जाते हैं। यह है-चर्मरत्न की विशेषता / दूसरी विशेषता यह है कि दिविजय के समय नदियों को पार कराने के लिए यह रत्न नौका के रूप में बन जाता है और म्लेच्छ नरेशों के द्वारा जलवष्टि कराने पर यह रत्न सेना की सुरक्षा करता है। 11. मणि-यह रत्न वैडूर्य मय तीन कोने और छह अंश वाला होता है / यह छत्र और चर्म इन दो रत्नों के बीच स्थित होता है। चक्रवर्ती की सेना, जो बारह योजन में फैली हुई होती है, उस सम्पूर्ण सेना को इसका दिव्य प्रकाश प्राप्त होता है। जब चक्रवर्ती तमिस्रा गुहा और खण्डप्रपात गुहा में प्रवेश करते हैं तब हस्तीरत्त के सिर के दाहिनी ओर इस मणि को बांध दिया जाता है। तब बारह योजन तक तीनों दिशाओं में, दोनों पायों में इसका प्रकाश फैलता है। इस मणि को हाथ या सिर पर बांधने से देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सबन्धी सभी प्रकार के उपद्रव शान्त हो जाते हैं, रोग मिट जाते हैं। इसको सिर प या किसी अंग-उपांग पर धारण करने से किसी भी प्रकार के शस्त्र प्रस्त्र का प्रभाव नहीं होता। इस रत्न को कलाई . पर बांधने से यौवन स्थिर रहता है, केशऔर नाखून न घटते हैं और न बढ़ते हैं। 12. कामिणी-यह रत्न पाठ सौणिक प्रमाण का होता है। यह चारों ओर से सम और विष नष्ट करने में पूर्ण समर्थ होता है। सूर्य, चन्द्र और अग्नि जिस अंधकार को नष्ट करने में समर्थ नहीं होते, उउ तमिस्र गुहा में यह रन अन्धकार को नष्ट कर देता है / चक्रवर्ती इस रत्न से तमिस्र गुहा में उनपचास मण्डल बनाते हैं। एक-एक मण्डल का प्रकाश एक-एक योजन तक फैलता है। यह रत्त चक्रवर्ती के स्कन्धावार में स्थापित रहता है। इसका दिव्य प्रकाश रात को भी दिन बना देता है। इस रत्न के प्रभाव से ही चक्रवर्ती द्वितीय अर्द्ध भरत को जीतने के लिये अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ तमिन गुहा में प्रवेश करते हैं और इसी रत्न से चक्रवर्ती ऋषभकट पर्वत पर अपना नाम अंकित करते हैं। [38] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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