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________________ 13. असि (खङ्ग) संग्रामभूमि में इस रत्न को शक्ति अप्रतिहत होती है। अपनी तीक्ष्ण धार से यह रत्न शत्रुओं को नष्ट कर डालता है / 14. दण्ड--यह रत्न-वज्रमय होता है। इसकी पांचों लताएं रत्नमय होती हैं। शत्रुदव को नष्ट करने में समर्थ होता है। यह विषम मार्ग को सम बनाता है। चक्रवर्ती के स्कन्धावार में जहाँ कहीं भी विषमता होती है उसको यह रत्न सम करता है। चक्रवर्ती के सभी मनोरथों को पूर्ण करता है। वैताढय पर्वत की दोनों गुफाओं के द्वार खोलकर उत्तर भरत की ओर चक्रवर्ती को पहुंचाता है। दिगम्बरपरम्परा की दृष्टि से ऋषभाचल पर्वत पर नाम लिखने का कार्य भी यह रत्न करता है। प्रत्येक रत्न के एक-एक हजार देव रक्षक होते हैं / चौदह रत्नों के चौदह हजार देवता रक्षक थे। बौद्ध ग्रन्थ मज्झिमनिकाय 17 में चक्रवर्ती के सात रत्नों का उल्लेख है। वह इस प्रकार हैं 1. चक्ररत्न-यह रत्न सम्पूर्ण आकार से परिपूर्ण हजार प्ररों वाला, सनैमिक और सनाभिक होता है। जब यह रत्न उत्पन्न होता है तब मूर्धाभिषिक्त राजा चक्रवर्ती कहलाने लगता है। जब वह राजा उस चक्ररत्न को कहता है-पवत्ततु भवं चक्करतनं, अभिविजिनातु भवं चक्करतनं ति / तब चक्रवर्ती राजा के आदेश से वह चारों दिशामों में प्रवर्तित होता है। जहाँ पर भी वह चक्ररत्न रुक जाता है, वहीं पर चक्रवर्ती राजा अपनी सेना के साथ पड़ाव डाल देता है / उस दिशा में जितने भी राजागण होते हैं, वे चक्रवर्ती राजा का अनुशासन स्वीकार कर लेते हैं / बह चक्ररत्न चारों दिशाओं में प्रवर्तित होता है और सभी राजा चक्रवर्ती के अनुगामी बन जाते हैं। यह चक्ररत्न समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर विजय-वैजयन्ती फहरा कर पुनः राजधानी लौट आता है और चक्रवर्ती के अन्तःपुर के द्वार के मध्य अवस्थित हो जाता है। 2. हस्तीरत्न-इसका वर्ण श्वेत होता है। इसकी ऊँचाई सात हाथ होती है / यह महान ऋद्धिसम्पन्न होता है / इसका नाम उपोसय होता है। पूर्वाह्न के समय चक्रवर्ती इस पर आरूढ होकर समुद्रपर्यन्त परिभ्रमण कर राजधानी में प्राकर प्रातरास लेते हैं / यह इसकी प्रतिशीघ्रगामिता का निदर्शन है / 3. अश्वरत्न-वर्ण की दृष्टि से यह पूर्ण रूप से श्वेत होता है। इसकी गति पवन-वेग की तरह होती है। इसका नाम बलाहक है। पूर्वाह्न के समय चक्रवर्ती सम्राट् इस पर आरूढ होकर समुद्रपर्यन्त धमकर पुनः राजधानी में आकर कलेवा कर लेता है। 4. मणिरत्न-यह शुभ और गतिमान वैड्र्यमणि और सुपरिमित होता है। चक्रवर्ती इस मणिरत्न को ध्वजा के अग्रभाग में आरोपित करता है और अपनी सेना के साथ रात्रि के गहन अन्धकार में प्रयाण करता है। इस मणि का इतना अधिक प्रकाश फैलता है कि लोगों को रात्रि में भी दिन का भ्रम हो जाता है। 5. स्त्रीरत्न-वह स्त्री बहुत ही सुन्दर, दर्शनीय, प्रासादिक, सुन्दर वर्ण वाली, न अति दीर्घ, न अति ह्रस्व, न अधिक मोटी, न अधिक दुबली, न अत्यन्त काली और न अत्यन्त गोरी प्रपितु स्वर्ण कान्तियुक्त दिव्य वर्ण वाली होती थी। उसका स्पर्श तूस और कपास के स्पर्श के समान प्रतिमृदु होता था। उस स्त्रीरत्न का शरीर शीतकाल में उष्ण और ग्रीष्मकाल में शीतल होता था। उसके शरीर से चन्दन की मधुर-मधुर सुगन्ध फुटती थी। उसके मुंह से उत्पल की गन्ध पाती थी। चक्रवर्ती के सोकर उठने से पूर्व वह उठती थी और चक्रवर्ती के सोने के 167. मज्झिम निकाय III 29/2/14 पृ. 242-246 (नालंदा संस्करण) [ 39] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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