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________________ बाद सोती थी। वह सदा-सर्वदा चक्रवर्ती के मन के अनुकूल प्रवृत्ति करती थी। मन से भी चक्रवर्ती की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती थी। फिर तन से तो करने का प्रश्न ही नहीं था। 6. गृहपतिरत्न–गृहपति के कर्मविपाकज दिव्य चक्षु उत्पन्न होते थे। वह चक्रवर्ती को निधियों को उनके अधिष्ठातानों के साथ अथवा अधिष्ठातामों से रहित देखता है। चक्रवर्ती उस गहपति रत्न के साथ नौका में आरूढ होकर मध्यगंगा के बीच में जाकर कहता है-हे गहपति ! मुझे हिरण्य-सुवर्ण चाहिये। तब ग्रहपति रत्न दोनों हाथों को मंगा के पानी के प्रवाह में डालकर हिरण्य-सवर्ण से भरे कलश को बाहर निकाल कर चक्रवर्ती के सामने रखता है और चक्रवर्ती सम्राट से पूछता है-इतना ही पर्याप्त है या और ले कर पाऊँ ? 7. परिनायक-रत्न--यह महामनीषी होता है / अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से चक्रवर्ती के समस्त क्रियाकलापों में परामर्श प्रदान करता है। वैदिक साहित्य में भी चक्रवर्ती सम्राट के चौदह रत्न बताये हैं। वे इस प्रकार है-१. हाथी 2. घोड़ा 3. रथ 4. स्त्री 5. बाण 6. भण्डार 7. माला 8. वस्त्र 9. वृक्ष 10. शक्ति 11. पाश 12. मणि 13. छत्र और 14. विमान। गंगा महानदी सम्राट भरत षट्खण्ड पर विजय-वैजयन्ती फहराने के लिये विनीता से प्रस्थित होते हैं और गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होते हुए पूर्व दिशा में मागध दिशा की ओर चलते हैं। गंमा भारतवर्ष की बड़ी नदी है / स्कन्धपुराण,'१६ अमरकोश,१६६ आदि में गंगा को देवताओं की नदी कहा है। जैन साहित्य में गंगा को देवाधिष्ठित नदी माना है। 170 गंगा का विराट रूप भी उसको देवत्व की प्रसिद्धि का कारण रहा है। योगिनीतंत्र ग्रन्थ '75 में मंगा के विष्णुपदी, जाह्नवी: मंदाकिनी और भागीरथी आदि विविध नाम मिलते हैं। महाभारत और भागवतपुराण इसके मलखनन्दा 72 तथा भागवतपुराण में ही दूसरे स्थान पर धुनदी'७३ नाम प्राप्त है। रघुवंश'७४ में भागीरथी और जाह्नवी ये दो नाम गंगा के लिये मिलते हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार गंगा का उद्गमस्थल पद्मह्रद है।' 75 पालिग्रन्थों में अनोतत्त झील के दक्षिणी मुख को गंगा का स्रोत बतलाया गया है।'७६ अाधुनिक भूगोलवेताओं की दृष्टि से भागीरथी सर्वप्रथम गढ़वाल क्षेत्र में गंगोत्री के समीप हमगोचर होती 168. स्कन्धपुराण, काशी खण्ड, गंगा सहस्रनाम, अध्याय 29 169. अमरकोश 1 / 10 / 31 170. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 4 / 171. योगिनीतंत्र 2,3 पृ. 122 और पागे; 2, 7, 8 पृ. 186 और मागे 172. (क) महाभारत, प्रादिपर्व 170122 (ख) श्रीमद्भागवतपुराण 416224; 1229142 173. श्रीमद्भागवतपुराण 3 / 5 / 1; 1075 / 8 174. रघुवंश 7 / 36; 895; 10 / 26 175. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 4 176. प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, लाहा, पृ. 53 [40] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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