________________ नवनिधियां सम्राट् भरत के पास चौदह रत्नों के साथ ही नवनिधियां भी थीं, जिनसे उन्हें मनोवांछित वस्तुएं प्राप्त होती थीं। निधि का अर्थ खजाना है / भरत महाराज को ये नवनिधियां, जहाँ गंगा महानदी समुद्र में मिलती है, वहां पर प्राप्त हुई। प्राचार्य अभयदेव 3 के अनुसार चक्रवर्ती को अपने राज्य के लिये उपयोगी सभी वस्तुओं की प्राप्ति इन नौ निधियों से होती है / इसलिये इन्हें नवनिधान के रूप में गिना है। वे नवनिधियां इस प्रकार हैं 1. नैसर्प निधि-यह निधि ग्राम, नगर, द्रोणमुख आदि स्थानों के निर्माण में सहायक होती है। 2. पांडुकनिधि-मान, उन्मान और प्रमाण आदि का ज्ञान कराती है तथा धाग्य और बीजों को उत्पन्न करती है। 3. पिंगलनिधि-यह निधि मानव और तिर्यञ्चों के सभी प्रकार के आभूषणों के निर्माण की विधि का शान कराने वाली है और साथ ही योग्य आभरण भी प्रदान करती है। 4. सर्वरत्ननिधि-इस निधि से वज्र, वैड्र्य, मरकत, माणिक्य, पद्मराग, पुष्पराज प्रभूति बहुमूल्य रत्न प्राप्त होते हैं। 5. महापयनिधि--यह निधि सभी प्रकार की शुद्ध एवं रंगीन वस्तुओं की उत्पादिका है। किन्हीं-किन्हीं प्रन्यों में इसका नाम पद्मनिधि भी मिलता है। 6. कालनिधि-वर्तमान, भूत, भविष्य, कृषिकर्म, कला, व्याकरणशास्त्र प्रभृति का यह निधि ज्ञान कराती है। 7. महाकालनिधि–सोना, चांदी, मुक्ता, प्रवाल, लोहा प्रभृति की खाने उत्पन्न करने में सहायक होती है / 8. माणवकनिधि-कवच, ढाल, तलवार प्रादि विविध प्रकार के दिव्य प्रायुध, युद्धनीति, दण्डनीति प्रादि की जानकारी कराने वाली। 9. शंखनिधि-विविध प्रकार के काव्य, वाद्य, नाटक आदि की विधि का ज्ञान कराने वाली होती है। ये सभी निधियाँ अविनाशी होती हैं। दिगविजय से लौटते हुए मंगा के पश्चिम तट पर अट्ठम तप के पश्चात् चक्रवर्ती सम्राट को यह प्राप्त होती हैं। प्रत्येक निधि एक-एक हजार यक्षों से अधिष्ठित होती है। इनकी न, चौड़ाई नौ योजन तथा लम्बाई दस योजन होती है / इनका प्राकार संदूक के समान होता है। ये सभी निधियाँ स्वर्ण और रत्नों से परिपूर्ण होती हैं। चन्द्र और सूर्य के चिह्नों से चिह्नित होती हैं तथा पल्योपम 192. (क) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र 114 (ख) स्थानांगसूत्रं 9:19 (ग) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, भरतचक्रवर्ती अधिकार, वक्षस्कार 3 (घ) हरिवंशपुराण, सगं 11 (ड) माधनन्दी विरचित शास्त्रसारसमुच्चय, सूत्र 18, पृ. 54 193. स्थानांगवृत्ति, पत्र 226 [ 42] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org