________________ 172] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र बहुत बड़ा पूजा-सत्कार हो—बहुमूल्य वस्तुओं का उपयोग हो, महाह-~-जिसके अन्तर्गत गाजों-बाजों सहित बहुत बड़ा उत्सव मनाया जाए, ऐसे महाराज्याभिषेक का प्रबन्ध करो व्यवस्था करो। राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे आभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट हुए। वे उत्तरपूर्व दिशाभाग में ईशान-कोण में गये। वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा उन्होंने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाला। जम्बूद्वीप के विजयद्वार के अधिष्ठाता विजयदेव के प्रकरण में जो वर्णन अाया है, वह यहाँ संग्राह्य है। वे देव पंडकवन में एकत्र हुए, मिले। मिलकर जहाँ दक्षिणार्थ भरत क्षेत्र था, जहाँ विनीता राजधानी थी, वहाँ आये। प्राकर विनीता राजधानी की प्रदक्षिणा की, जहाँ अभिषेकमण्डप था, जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये। आकर महार्थ, महाघ तथा महार्ह महाराज्याभिषेक के लिए त समस्त सामग्री राजा के समक्ष उपस्थित की। बत्तीस हजार राजाओं ने शोभन-उत्तम, श्रेष्ठ तिथि, करण, दिवस. नक्षत्र एवं महर्त में-उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र तथा विजय नामक महर्त में स्वाभाविक तथा उत्तरविक्रिया द्वारा-वैक्रियलब्धि द्वारा निष्पादित, श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठापित, सुरभित, उत्तम जल से परिपूर्ण एक हजार पाठ कलशों से राजा भरत का बड़े आनन्दोत्सव के साथ अभिषेक किया। अभिषेक का परिपूर्ण वर्णन विजयदेव के अभिषेक के सदृश है।' उन राजाओं में से प्रत्येक ने इष्ट-प्रिय वाणी द्वारा राजा का अभिनन्दन, अभिस्तवन किया। वे बोले-राजन् ! आप सदा जयशील हों। आपका कल्याण हो। (जिन्हें नहीं जीता है, उन पर आप विजय प्राप्त करें, जिनको जीत लिया है, उनका पालन करें, उनके बीच निवास करें / देवों में इन्द्र की तरह, तारों में चन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह तथा नागों में धरणेन्द्र की तरह लाखों पूर्व, करोड़ों पूर्व, कोडाकोड़ी पूर्व पर्यन्त उत्तर दिशा में लघु हिमवान् पर्वत तथा अन्य तीन दिशाओं में समुद्रों द्वारा मर्यादित संपूर्ण भरतक्षेत्र के ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, पाश्रम, सन्निवेश-इन सबका, इन सब में बसने वाले प्रजाजनों का सम्यक्-भलीभाँति पालन कर यश अजित करते हुए, इन सबका आधिपत्य, पौरोवृत्त्य, अग्रसरता करते हुए) आप सांसारिक सुख भोगें, यों कह कर उन्होंने जयघोष किया। तत्पश्चात् सेनापतिरत्न, (गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न) तीन सौ साठ सूपकारों, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जनों तथा और बहुत से माण्डलिक राजाओं, सार्थवाहों ने राजा भरत का उत्तम कमलपत्रों पर प्रतिष्ठापित, सुरभित उत्तम जल से परिपूर्ण कलशों से अभिषेक किया। उन्होंने उदार-उत्तम, इष्ट-वाञ्छित, कान्त-कमनीय, प्रिय-प्रीतिकर, मनोज्ञ मनोनुकल, मनाम-चित्त को प्रसन्न करने वाली, शिवकल्याणमयी, धन्य-प्रशंसा युक्त, मंगल-मंगलयुक्त, सश्रीक शोभायुक्त लालित्ययुक्त, हृदयगमनीय हृदय में प्रानन्द उत्पन्न करने वाली, हृदयप्रह्लादनीय-हृदय को आह्लादित करने वाली वाणी द्वारा अनवरत अभिनन्दन किया, अभिस्तवन किया। . 1. देखिये तृतीय उपाङ्ग-जीवाजीवाभिगमसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org