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________________ तृतीय वक्षस्कार] [171 राजा भरत उन प्राभियोगिक देवों से यह सुनकर हर्षित एवं परितुष्ट हुअा, पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / उन्हें बुलाकर यों कहा—'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही हस्तिरत्न को तैयार करो। हस्तिरत्न को तैयार कर घोडे, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं से-पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना को सजायो / ऐसा कर मुझे अवगत करायो / ' कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा किया एवं राजा को उसकी सूचना दी। फिर राजा भरत स्नानघर में प्रविष्ट हुआ / स्नानादि से निवृत्त होकर अंजनगिरि के शिखर के समान उन्नत गजराज पर आरूढ हुा / राजा भरत के आभिषेक्य हस्तिरत्न पर आरूढ हो जाने पर पाठ मंगल-प्रतीक, जिनका वर्णन विनीता राजधानी में प्रवेश करने के अवसर पर आया है, राजा के आगे-आगे रवाना किये गये। राजा के विनीता राजधानी से अभिनिष्क्रमण का वर्णन उसके विनीता में प्रवेश के वर्णन के समान है / राजा भरत विनीता राजधानी के बीच से निकला / निकल कर जहाँ विनीता राजधानी के उत्तर-पूर्व दिशाभाग में-ईशानकोण में अभिषेकमण्डप था, वहाँ आया। वहाँ पाकर अभिषेकमण्डप के द्वार पर आभिषेक्य हस्तिरत्न को ठहराया। ठहराकर वह हस्ति रत्न से नीचे उतरा / नीचे उतर कर स्त्रीरत्न -परम सुन्दरी सुभद्रा, बत्तीस हजार ऋतुकल्याणिकानों, बत्तीस हजार जनपदकल्याणिकाओं, बत्तीस-बत्तीस पात्रों, अभिनेतव्य ऋमोपक्रमों से अनबद्ध बत्तीस हजार नाटकों-- नाटक-मंडलियों से संपरिवृत-घिरा हुअा राजा भरत अभिषेकमण्डप में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर जहाँ अभिषेकपीठ था, वहाँ आया। वहाँ पाकर उसने अभिषेकपीठ की प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वह पूर्व की ओर स्थित तीन सीढ़ियों से होता हुआ जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया। वहाँ पाकर पूर्व की ओर मुंह करके सिंहासन पर बैठा / फिर राजा भरत के अनुगत बत्तीस हजार प्रमुख राजा, जहाँ अभिषेकमण्डप था, वहाँ आये / वहाँ आकर उन्होंने अभिषेकमण्डप में प्रवेश किया। प्रवेश कर अभिषेकपीठ की प्रदक्षिणा की, उसके उत्तरवर्ती त्रिसोपानमार्ग से, जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये / वहाँ आकर उन्होंने हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे राजा भरत को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया / वर्धापित कर राजा भरत के न अधिक समीप, न अधिक दूर-थोड़ी ही दूरी पर शुश्रूषा करते हुए-राजा का वचन सुनने की इच्छा रखते हुए, प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, राजा की पर्युपासना करते हुए यथास्थान बैठ गये। तदनन्तर राजा भरत का सेनापतिरत्न, (गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न, पुरोहित रत्न, तीन सौ साठ सूपकार, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जन तथा और बहुत से माण्डलिक राजा, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशील पुरुष, राजसम्मानित नागरिक) सार्थवाह अादि वहाँ आये। उनके पाने का वर्णन पूर्ववत् संग्राह्य है। केवल इतना अन्तर है कि वे दक्षिण की अोर के त्रिसोपान-मार्ग से अभिषेकपीठ पर गये। (राजा को प्रणाम किया, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए) राजा की पर्युपासना करने लगे--राजा की सेवा में उपस्थित हुए। तत्पश्चात राजा भरत ने पाभियोगिक देवों का आह्वान किया। आह्वान कर उनसे कहादेवानुप्रियो ! मेरे लिए महार्थ-जिसमें मणि, स्वर्ण, रत्न प्रादि का उपयोग हो, महार्य-जिसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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