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________________ 170] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र में-ईशानकोण में एक विशाल अभिषेकमण्डप की विकुर्वणा करो-वैत्रियलब्धि द्वारा रचना करो। वैसा कर मुझे अवगत करायो।' राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे आभियोगिक देव अपने मन में हर्षित एवं परितुष्ट हुए / “स्वामी ! जो आज्ञा।" यों कहकर उन्होंने राजा भरत का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया / स्वीकार कर विनीता राजधानी के उत्तर-पूर्व दिशाभाग मेंईशानकोण में गये / वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाला। प्रात्मप्रदेशों को बाहर निकाल कर उन्हें संख्यात योजन पर्यन्त दण्डरूप में परिणत किया / उनसे गृह्यमाण (हीरे, वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, ज्योतिरस, अंजन, अंजनपुलक, स्वर्ण, अंक, स्फटिक), रिष्ट आदि रत्नों के बादर---स्थूल, असार पुद्गलों को छोड़ दिया। उन्हें छोड़ कर सारभूत सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण किया। उन्हें ग्रहण कर पुनः वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाला। बाहर निकाल कर मृदंग के ऊपरी भाग की ज्यों समतल, सुन्दर भूमिभाग की विकुर्वणा की-वैक्रियलब्धि द्वारा रचना की। उसके ठीक बीच में एक विशाल अभिषेक-मण्डप की रचना की। वह अभिषेक-मण्डप सैकड़ों खंभों पर टिका था / (वह अभ्युद्गत-बहुत ऊँचा था / वह हीरों से सरचित वेदिकानों. तोरणों एवं सन्दर पतलियों से सुसज्जित था / वह सुश्लिष्ट—सुन्दर, सुहावने, विशिष्ट, रमणीय आकारयुक्त, प्रशस्त, उज्ज्वल वैडूर्यमणि निर्मित स्तंभों पर संस्थित था / उसका भूभिभाग नाना प्रकार की देदीप्यमान मणियों से खचित--जड़ा हुआ, सुविभक्त एवं अत्यधिक समतल था / वह ईहामृग-भेड़िया, वृषभ-बैल, तुरंग-घोड़ा, मनुष्य, मगरमच्छ, विहंग-पक्षी, व्यालक–सांप, किन्नर, रुरु-कस्तूरीमृग, शरभ-अष्टापद, चमर--चवरी गाय, कुंजर हाथी, वनलता एवं पद्मलला आदि के विविध चित्रों से युक्त था / उस पर स्वर्ण, मणि तथा रत्न रचित स्तूप बने थे / उसका उच्च धवल शिखर अनेक प्रकार की घंटियों एवं पांच रंग की पताकानों से परिमंडित था-विभूपित था। वह किरणों की ज्यों अपने से निकलती आभा से देदीप्यमान था / उसका प्रांगन गोबर से लिपा था तथा दीवारें चूने से---कलई से पुती थीं। उस पर ताजे गोशीर्ष तथा लाल चन्दन के पांचों अंगुलियों एवं हथेली सहित हाथ के थापे लगे थे। उसमें चन्दन-चचित कलश रखे थे। उसका प्रत्येक द्वार तोरणों एवं कलशों से सुसज्जित था। उसकी दीवारों पर जमीन से ऊपर तक के भाग को छ ती हुई बड़ी-बड़ी गोल तथा लम्बी पुष्पमालाएँ लगी थीं। पांच रंगों के सरस--ताजे, सुरभित पुष्पों से वह सजा था। काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान एवं धूप की गमगमाती महक से वहाँ का वातावरण उत्कृष्ट सुरभिमय बना था, जिससे सुगन्धित धुएँ की प्रचुरता के कारण वहाँ गोल-गोल धममय छल्ले बनते दिखाई देते थे / अभिषेकमण्डप के ठीक बीच में एक विशाल अभिषेकपीठ की रचना की / वह अभिषेकपीठ स्वच्छ-रजरहित तथा श्लक्षण-सूक्ष्म पुद्गलों से बना होने से मुलायम था। उस अभिषेकपीठ की तीन दिशाओं में उन्होंने तीन-तीन सोपानमार्गों की रचना की / (उन्हें ध्वजाओं, छत्रों तथा वस्त्रों से सजाया / ) उस अभिषकपीठ का भूमिभाग बहुत समतल एवं रमणीय था। उस अत्यधिक समतल, सुन्दरःभूमिभाग के ठीक बीच में उन्होंने एक विशाल सिंहासन का निर्माण किया। सिंहासन का वर्णन विजयदेव के सिंहासन जैसा है / यों उन देवताओं ने अभिषेकमण्डप की रचना की। अभिषेकमण्डप की रचना कर वे जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये। उसे इससे अवगत कराया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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