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________________ तृतीय वक्षस्कार] [169 सम्माणेइ 2 त्ता सेणावइरयणं सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता जाव' पुरोहियरयणं सक्कारेइ सम्माणेइ 2 त्ता एवं तिणि सळं सूवारसए अट्ठारस सेणिप्पसेणीयो सक्कारेइ सम्माणेइ 2 त्ता अण्णे बहवे राईसरतलवर जाव' सत्थवाहप्पभिइओ सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता पडिविसज्जेति 2 त्ता उप्पि पासायवरगए जाव' विहरइ / 184] राजा भरत अपने राज्य का दायित्व सम्हाले था। (एक दिन उसके मन में ऐसा भाव, चिन्तन, आशय तथा संकल्प उत्पन्न हुआ-) मैंने अपने बल, वीर्य, पौरुष एवं पराक्रम द्वारा एक ओर लघु हिमवान् पर्वत एवं तीन अोर समुद्रों से मर्यादित समस्त भरतक्षेत्र को जीत लिया है / इसलिए अब उचित है, मैं विराट् राज्याभिषेक-समारोह आयोजित करवाऊं, जिसमें मेरा राजतिलक हो / उसने ऐसा विचार किया / (रात बीत जाने पर, नीले तथा अन्य कमलों के सुहावने रूप में खिल जाने पर, उज्ज्वल प्रभा एवं लाल अशोक, किशुक के पुष्प, तोते की चोंच, घुघची के प्राधे भाग के रंग के सदृश लालिमा लिये हुए, कमल वन को उद्बोधित--विकसित करने वाले, सहस्रकिरणयुक्त, दिन के प्रादुर्भावक सूर्य के उदित होने पर, अपने तेज से उद्दीप्त होने पर) दूसरे दिन राजा भरत, जहाँ स्नानघर था, वहाँ अाया। स्नान प्रादि कर बाहर निकला, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, सिंहासन था, वहाँ पाया, पूर्व की ओर मुंह किये सिंहासन पर बैठा। सिंहासन पर बैठकर उसने सोलह हजार आभियोगिक स हजार प्रमख राजानों. सेनापतिरत्त. (गाथापतिरत्न, वर्धकिरल.) परोहितरत्न. तीन सौ साठ सूपकारों, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जनों तथा अन्य बहुत से माण्डलिक राजाओं, ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशील पुरुषों, राजसम्मानित विशिष्ट नागरिकों और सार्थवाहों को अनेक छोटे व्यापारियों को साथ लिये देशान्तर में व्यापार-व्यवसाय करनेवाले बड़े व्यापारियों को बुलाया / बुलाकर उसने कहा—'देवानुप्रियो ! मैंने अपने बल, वीर्य, (पौरुष तथा पराक्रम द्वारा एक ओर लघु हिमवान् पर्वत से तथा तीन ओर समुद्रों से मर्यादित) समग्र भरतक्षेत्र को जीत लिया है / देवानुप्रियो ! तुम लोग मेरे राज्याभिषेक के विराट् समारोह की रचना करो तैयारी करो। राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे सोलह हजार आभियोगिक देव (बत्तीस हजार प्रमुख राजा, सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न, पुरोहित रत्न, तीन सौ साठ सूपकार, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जन तथा अन्य बहुत से माण्डलिक राजा, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशील पुरुष, राज-सम्मानित विशिष्ट नागरिक, सार्थवाह) आदि बहुत हषित एवं परितुष्ट हुए। उन्होंने हाथ जोड़े, उन्हें मस्तक से लगाया / ऐसा कर राजा भरत का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया। तत्पश्चात् राजा भरत जहाँ पौषधशाला थी, वहाँ आया, तेले की तपस्या स्वीकार की। तेले की तपस्या में प्रतिजागरित रहा। तेले की तपस्या पूर्ण हो जाने पर उसने आभियोगिक देवों का अाह्वान किया / आह्वान कर उसने कहा- 'देवानुप्रियो ! विनीता राजधानी के उत्तर-पूर्व दिशाभाग देवों,ब 1. देखें मूत्र यही 2. देख सूत्र 44 3. देखें सूत्र यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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