________________ 354] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र भगवन् ! तृतीय अभिवद्धित-संवत्सर के कितने पर्व बतलाये गये हैं ? गौतम ! तृतीय अभिवद्धित-संवत्सर के छब्बीस' पर्व बतलाये गये हैं। चौथे चन्द्र-संवत्सर के चौबीस तथा पांचवें अभिवद्धित-संवत्सर के छब्बीस पर्व बतलाये गये हैं। पांच भेदों में विभक्त युग-संवत्सर के, सारे पर्व जोड़ने पर 124 होते हैं / भगवन ! प्रमाण-संवत्सर कितने प्रकार का बतलाया गया है ? गौतम ! प्रमाण-संवत्सर पाँच प्रकार का बतलाया गया है-१. नक्षत्र-संवत्सर, 2. चन्द्रसंवत्सर, 3. ऋतु-संवत्सर, 4. प्रादित्य-संवत्सर तथा 5. अभिवद्धित-संवत्सर / भगवन् ! लक्षण-संवत्सर कितने प्रकार का बतलाया गया है ? गौतम ! लक्षण-संवत्सर पांच प्रकार का बतलाया गया है-- 1. समक संवत्सर--जिसमें कृत्तिका प्रादि नक्षत्र समरूप में-जो नक्षत्र जिन तिथियों में . स्वभावतः होते हैं, तदनुरूप कार्तिकी पूर्णिमा आदि तिथियों से-मासान्तिक तिथियों से योग-संबन्ध करते हैं, जिसमें ऋतुएँ समरूप में-न अधिक उष्ण, न अधिक शीतल रूप में परिणत होती हैं, जो प्रचुर जलयुक्त–वर्षायुक्त होता है, वह समक-संवत्सर कहा जाता है। 2. चन्द्र-संवत्सर-जब चन्द्र के साथ पूर्णमासी में विषम-विसदृश--मासविसदृशनामोपेत नक्षत्र का योग होता है, जो कटुक होता है—गर्मी, सर्दी, बीमारी आदि की बहुलता के कारण कटुककष्टकर होता है, विपुल वर्षायुक्त होता है, वह चन्द्र-संवत्सर कहा जाता है। 3. कर्म-संवत्सर-जिसमें विषम काल में जो वनस्पतिअंकुरण का समय नहीं है, वैसे कालमें वनस्पति अंकुरित होती है, अन्-ऋतु में--जिस ऋतु में पुष्प एवं फल नहीं फूलते, नहीं फलते, उसमें पुष्प एवं फल आते हैं, जिसमें सम्यक् यथोचित, वर्षा नहीं होती, उसे कर्म-संवत्सर कहा जाता है। 4. प्रादित्य-संवत्सर--जिसमें सूर्य पृथ्वी, जल, पुष्प एवं फल-इन सबको रस प्रदान करता है, जिसमें थोड़ी वर्षा से ही धान्य सम्यक् रूप में निष्पन्न होता है-पर्याप्त मात्रा में निपजता हैअच्छी फसल होती है, वह प्रादित्य-संवत्सर कहा जाता है। 5. अभिवद्धित-संवत्सर-जिसमें क्षण, लव, दिन, ऋतु, सूर्य के तेज से तप्त-तपे रहते हैं, जिसमें निम्न स्थल-नीचे के स्थान जल-पूरित रहते हैं, उसे अभिवद्धित संवत्सर समझे / भगवन् ! शनैश्चर संवत्सर कितने प्रकार का बतलाया गया है ? गौतम ! शनैश्चर-संवत्सर अट्ठाईस प्रकार का बतलाया गया है 1. अभिजित्, 2. श्रवण, 3. धनिष्ठा, 4. शतभिषक्, 5. पूर्वा भाद्रपद, 6. उत्तरा भाद्रपद, 7. रेवती, 8. अश्विनी, 6. भरिणी, 10. कृत्तिका, 11. रोहिणी, (12. मृगशिर, 13. पार्दा, 14. पूनर्वसु, 15. पुष्य,१६. प्रश्लेषा, 17. मघा, 18. पूर्वा फाल्गुनी, 19. उत्तरा फाल्गुनी, 20. हस्त, 21. चित्रा, 22. स्वाति, 23. विशाखा, 24. अनुराधा, 25. ज्येष्ठा, 26. मूल, 27. पूर्वाषाढा तथा 28. उत्तराषाढा। अथवा शनैश्चर महाग्रह तीस संवत्सरों में समस्त नक्षत्र-मण्डल का समापन करता है उन्हें पार कर जाता है, वह काल शनैश्चर-संवत्सर कहा जाता है। 1. अधिक मास होने के कारण दो पर्व–पक्ष अधिक होते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org