SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चम वक्षस्कार] [283 केसर आदि सुगन्धित पदार्थ मिले जल, पुष्पोदक-पुष्प मिले जल तथा शुद्ध जल केवल जल--यों तीन प्रकार के जल द्वारा उनको स्नान कराती हैं / स्नान कराकर उन्हें सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित करती हैं / तत्पश्चात् भगवान् तीर्थकर को हथेलियों के संपुट द्वारा और उनकी माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं / उठाकर, जहाँ उत्तरदिशावर्ती कदलीगृह, चतुःशाल भवन एवं सिंहासन था, वहाँ लाती हैं। वहाँ लाकर भगवान् तीर्थंकर तथा उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं। उन्हें सिंहासन पर बिठाकर अपने प्राभियोगिक देवों को बुलाती हैं / बुलाकर उन्हें कहती हैं देवानुप्रियो ! चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत से गोशीर्ष-चन्दन-काष्ठ लामो / ' मध्य रुचक पर निवास करने वाली उन महत्तरा दिक्कुमारिकाओं द्वारा यह आदेश दिये जाने पर वे प्राभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं, विनयपूर्वक उनका आदेश स्वीकार करते हैं / वे शीघ्र ही चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत से सरस-ताजा गोशीर्ष चन्दन ले आते हैं / तब वे मध्य रुचकनिवासिनी दिक्कुमारिकाएं शरक-शर या बाण जैसा तीक्ष्ण-नुकीला अग्नि-उत्पादक काष्ठविशेष तैयार करती हैं / उसके साथ अरणि काष्ठ को संयोजित करती हैं / दोनों को परस्पर रगड़ती हैं, अग्नि उत्पन्न करती हैं। अग्नि को उद्दीप्त करती हैं / उद्दीप्त कर उसमें गोशीर्ष चन्दन के टुकड़े डालती हैं। उससे अग्नि प्रज्वलित करती है। अग्नि को प्रज्वलित कर उसमें समिधा-काष्ठ-हवनोपयोगी ईन्धन डालती हैं, हवन करती हैं, भूतिकर्म करती हैं -जिस प्रयोग द्वारा ईन्धन भस्मरूप में परिणत हो जाए, वैसा करती हैं। वैसा कर वे डाकिनी, शाकिनी आदि से, दृष्टिदोष--से-नजर आदि से रक्षा हेतु भगवान् तीर्थकर तथा उनकी माता के भस्म की पोटलियाँ बाँधती हैं / फिर नानाविध मणि-रत्नांकित दो पाषाण-गोलक लेकर वे भगवान् तीर्थकर के कर्णमूल में उन्हें परस्पर ताडित कर 'टिट्टी' जैसी ध्वनि उत्पन्न करती हुई बजाती हैं, जिससे बाललीलावश अन्यत्र आसक्त भगवान् तीर्थकर उन द्वारा वक्ष्यमाण आशीर्वचन सुनने में दत्तावधान हो सकें / वे आशीर्वाद देती हैं'भगवन् ! आप पर्वत के सदृश दीर्घायु हों।' फिर मध्य रुचकनिवासिनी वे चार महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थकर को अपनी हथेलियों के संपुट द्वारा तथा भगवान की माता को भुजानों द्वारा उठाती हैं / उठाकर उन्हें भगवान तीर्थकर के जन्म-भवन में ले आती हैं / भगवान् की माता को वे शय्या पर सुला देती हैं / शय्या पर सुलाकर भगवान् तीर्थंकर को माता की बगल में रख देती हैं-सुला देती हैं। फिर वे मंगल-गीतों का आगान, परिगान करती हैं। विवेचन-शतपाक एवं सहस्रपाक तैल आयुर्वेदिक दृष्टि से विशिष्ट लाभप्रद तथा मूल्यवान् तल होते हैं, जिनमें बहुमूल्य औषधियां पड़ी होती हैं। शान्तिचन्द्रीया वृत्ति में किये गये संकेत के अनुसार शतपाक तैल वह है, जिसमें सौ प्रकार के द्रव्य पड़े हों, जो सौ दफा पकाया गया हो, अथवा जिसका मूल्य सौ कार्षापण हो। उसी प्रकार सहस्रपाक तैल वह है, जिसमें हजार प्रकार के द्रव्य पडे हों, जो हजार बार पकाया गया हो, अथवा जिसका मूल्य हजार कार्षापण हो / उपासक वृत्ति में प्राचार्य अभयदेवसूरि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है। कार्षापण प्राचीन भारत में प्रयुक्त एक सिक्का था / वह स्वर्ण, रजत तथा ताम्र अलग-अलग तीन प्रकार का होता था। प्रयुक्त धातु के अनुसार वह स्वर्णकार्षापण, रजतकार्षापण तथा ताम्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy