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________________ 282] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 1. अलंबुसा, 2. मिश्रकेशी, 3. पुण्डरीका, 4. वारुणी, 5. हासा, 6. सर्वप्रभा, 7. श्री तथा 8. ह्री। शेष समग्र वर्णन पूर्ववत् है / वे भगवान् तीर्थंकर तथा उनकी माता को प्रणाम कर उनके उत्तर में चॅवर हाथ में लिये आगान-परिगान करती हैं। उस काल, उस समय रुचककूट के मस्तक पर--शिखर पर चारों विदिशाओं में निवास करने वाली चार महत्तरिका दिक्कुमारिकाएँ सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं 1. चित्रा, 2. चित्रकनका, 3. शतेरा तथा 4. सौदामिनी / आगे का वर्णन पूर्वानुरूप है। वे प्राकर भगवान् तीर्थंकर की माता से कहती हैं--'आप डरें नहीं।' यों कहकर भगवान् तीर्थकर तथा उनकी माता के चारों विदिशाओं में अपने हाथों में दीपक लिये प्रागान-परिगान करती हैं / उस काल, उस समय मध्य रुचककूट पर निवास करनेवाली चार महत्तरिका दिक्कुमारिकाएँ सुखोपभोग करती हुई अपने-अपने कूटों पर विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं 1. रूपा, 2. रूपासिका, 3. सुरूपा तथा 4. रूपकावती / आगे का वर्णन पूर्ववत् है। वे उपस्थित होकर भगवान् तीर्थंकर की माता को सम्बोधित कर कहती हैं—'आप डरें नहीं।' इस प्रकार कहकर वे भगवान् तीर्थकर के नाभि-नाल को चार अंगुल छोड़कर काटती हैं। नाभि-नाल को काटकर जमीन में खड्डा खोदती हैं। नाभि-नाल को उसमें गाड़ देती हैं और उस खड्डे को वे रत्नों से, हीरों से भर देती हैं। गड्डा भरकर मिट्टी जमा देती हैं, उस पर हरी-हरी दूब उगा देती हैं। ऐसा करके उसकी तीन दिशाओं में तीन कदलीगृहकेले के वृक्षों से निष्पन्न घरों की विकुर्वणा करती हैं। उन कदली-गहों के बीच में तीन चतुः शालाओं-जिन में चारों ओर मकान हों, ऐसे भवनों की विकुर्वणा करती हैं। उन भवनों के बीचों बीच तीन सिंहासनों की विकुर्वणा करती हैं। सिंहासनों का वर्णन पूर्ववत् है। फिर वे मध्यरुचकवासिनी महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थकर तथा उनकी माता के पास आती हैं। तीर्थंकर को अपनी हथेलियों के संपुट द्वारा उठाती हैं और तीर्थकर की माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं / ऐसा कर दक्षिणदिग्वर्ती कदलीगह में, जहाँ चतुःशाल भवन एवं सिंहासन बनाए गए थे, वहाँ आती हैं। भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं। सिंहासन पर बिठाकर उनके शरीर पर शतपाक एवं सहस्रपाक तैल द्वारा अभ्यंगन-- मालिश करती हैं। फिर सुगन्धित गन्धाटक से--गेहूँ अादि के आटे के साथ कतिपय सौगन्धिक पदार्थ मिलाकर तैयार किये गये उबटन से शरीर पर वह उबटन या पीठी मलकर तेल की चिकनाई दूर करती हैं / वैसा कर वे भगवान् तीर्थकर को हथेलियों के संपुट द्वारा तथा उनकी माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं, जहाँ पूर्वदिशावर्ती कदलीगृह, चतुःशाल भवन तथा सिंहासन थे, वहाँ लाती हैं, वहाँ लाकर भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं / सिंहासन पर बिठाकर गन्धोदक-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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