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________________ पञ्चम वक्षस्कार] [281 ___ अवशिष्ट वर्णन पूर्ववत् है। (वे तीर्थकर की माता के निकट पाती हैं एवं हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे, उन्हें मस्तक पर घुमाकर तीर्थकर की माता से कहती हैं-- 'रत्नकुक्षिधारिके-अपनी कोख में तीर्थंकर रूप रत्न को धारण करने वाली ! जगत्प्रदीपदायिके-जगद्वर्ती जनों को सर्वभाव प्रकाशक तीर्थंकररूप दीपक प्रदान करने वाली ! हम आपको नमस्कार करती हैं / समस्त जगत् के लिए मंगलमय, नेत्रस्वरूप---सकल-जगद्भावदर्शक, मूर्तचक्षुर्णाह्य, समस्त जगत् के प्राणियों के लिए वात्सल्यमय, हितप्रद सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप मार्ग उपदिष्ट करने वाली, विभु --सर्वव्यापक-समस्त श्रोतृवन्द के हृदयों में तत्तद्भाषानुपरिणत हो अपने तात्पर्य का समावेश करने में समर्थ वाणी की ऋद्धि-वाग्वैभव से युक्त जिन-राग-द्वेषविजेता, ज्ञानी-सातिशय ज्ञानयुक्त, नायक, धर्मवरचक्रवर्ती उत्तम धर्मचक्र का प्रवर्तन करने वाले, बुद्ध--ज्ञाततत्त्व, बोधक-दूसरों को तत्त्वबोध देने वाले, समस्त लोक के नाथ समस्त प्राणिवर्ग में ज्ञान-बीज का आधान एवं संरक्षण कर उनके योग-क्षेमकारी, निर्मम ममतारहित, उत्तम 'क्षत्रिय-कुल में उद्भूत, लोकोत्तम–लोक में सर्वश्रेष्ठ तीर्थकर भगवान् की आप जननी हैं। आप धन्य हैं, पुण्यशालिनी हैं एवं कृतार्थ कृतकृत्य हैं।) देवानुप्रिये ! पूर्वदिशावर्ती रुचककूट निवासिनी हम आठ प्रमुख दिशाकुमारिकाएँ भगवान् तीर्थकर का जन्म-महोत्सव मनायेंगी। अतः प्राप भयभीत मत होना।' यों कहकर तीर्थंकर तथा उनकी माता के शृगार, शोभा, सज्जा आदि विलोकन में उपयोगी, प्रयोजनीय दर्पण हाथ में लिये वे भगवान् तीर्थकर एवं उनकी माता के पूर्व में प्रागान, परिगान करने लगती हैं। उस काल, उस समय दक्षिण रुचककट-निवासिनी पाठ दिक्कुमारिकाएँ अपने-अपने कूटों में सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं / उनके नाम इस प्रकार हैं 1. समाहारा, 2. सुप्रदत्ता, 3. सुप्रबुद्धा, 4. यशोधरा, 5. लक्ष्मीवती, 6. शेषवती, 7. चित्रगुप्ता तथा 8. वसुन्धरा / आगे का वर्णन पूर्वानुरूप है। वे भगवान् तीर्थकर की माता से कहती हैं-'पाप भयभीत न हों / ' यों कहकर वे भगवान् तीर्थकर एवं उनकी माता के स्नपन में प्रयोजनीय सजल कलश हाथ में लिये दक्षिण में आगान, परिगान करने लगती हैं। उस काल, उस समय पश्चिम रूचक कूट-निवासिनी पाठ महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं / उनके नाम इस प्रकार हैं 1. इलादेवी, 2. सुरादेवी, 3. पृथिवी, 4. पद्मावती, 5. एकनासा, 6. नवमिका, 7. भद्रा तथा 8. सीता। प्रागे का वर्णन पूर्ववत् है / वे भगवान तीर्थकर की माता को सम्बोधित कर कहती हैं—'पाप भयभीत न हो।' यों कह कर वे हाथों में तालवृन्त-व्यजन—पंखे लिये हुए आगान, परिगान करती हैं। उस काल, उस समय उत्तर रुचककूट-निवासिनी पाठ महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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