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________________ 56] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र विच्छिप्पमाणे, वयणमालासहस्सेहिं अभिथुव्यमाणे अभिथुव्यमाणे, कंति-सोहग्गगुणेहि पत्थिज्जमाणे पत्थिज्जमाणे, बहूणं नरनारिसहस्साणं दाहिणहत्येणं अंजलिमालासहस्साइं पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे, भवणपंतिसहस्साई समइच्छमाणे समइच्छमाणे,) पाउलबोलबहुलं गभं करते विणीपाए रायहाणीए मज्झमझेणं णिग्गच्छद। प्रासिन-संमज्जिअसित्त-सुइक-पुप्फोवयारकलिअं सिद्धत्थवणविउलरायमगं करेमाणे हय-गय-रह-पहकरेण पाइक्कचडकरेण य मंदं 2 उद्ध' यरेणुयं करेमाणे 2 जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे, जेणेव असोगवरपायवे, तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सोअं ठावेइ, ठावित्ता सीमानो पच्चोरुहइ, पच्चोरहित्ता सयमेवाभरणालंकारं प्रोमुअइ, ओमुइत्ता सयमेव चहि अट्टाहि लोअं करइ, करित्ता छठेणं भत्तेणं अपाणएणं प्रासादाहिं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं उग्गाणं, भोगाणं, राइनाणं, खत्तिप्राणं चाहिं सहस्सेहिं सद्धि एगं देवदूसमादाय मुडे भवित्ता आगाराप्रो अणगारियं पव्वइए। [37] नाभि कुलकर के, उनकी भार्या मरुदेवी की कोख से उस समय ऋषभ नामक अर्हत्, कौशलिक-कोशल देश में अवतीर्ण, प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर चतुदिग्व्याप्त अथवा दान, शील, तप एवं भावना द्वारा चार गतियों या चारों कषायों का अन्त करने में सक्षम धर्म-साम्राज्य के प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हुए। कौशलिक अर्हत् ऋषभ ने बीस लाख पूर्व कुमार-अकृताभिषेक राजपुत्र-युवराज-अवस्था में व्यतीत किये / तिरेसठ लाख पूर्व महाराजावस्था में रहते हुए उन्होंने लेखन से लेकर पक्षियों की बोली की पहचान तक गणित-प्रमुख कलाओं का, जिनमें पुरुषों की बहत्तर कलापों, स्त्रियों के चौसठ गुणों-कलाओं तथा सौ प्रकार के कार्मिक शिल्पविज्ञान का समावेश है, प्रजा के हित के लिए उपदेश किया। कलाएँ आदि उपदिष्ट कर अपने सौ पुत्रों को सौ राज्यों में अभिषिक्त किया उन्हें पृथक्-पृथक् राज्य दिये / उनका राज्याभिषेक कर वे तियासी लाख पूर्व (कुमारकाल के बीस लाख पूर्व तथा महाराज काल के तिरेसठ लाख पूर्व) गृहस्थ-वास में रहे। यों गृहस्थ-वास में रहकर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास-चैत्र मास में प्रथम पक्ष कृष्ण पक्ष में नवमी तिथि के उत्तरार्ध में मध्याह्न के पश्चात् रजत, स्वर्ण, कोश-भाण्डागार, कोष्ठागार-धान्य के प्रागार, बल-चतुरंगिणी सेना, वाहनहाथी, घोड़े, रथ आदि सवारियाँ, पुरनगर, अन्तःपुर-रनवास, विपुल धन, स्वर्ण, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिला स्फटिक, राजपट्ट आदि, प्रवाल-मू गे, रक्त रत्न–पद्मराग आदि लोक के सारभूत पदार्थों का परित्याग कर ये सब पदार्थ अस्थिर हैं, यों उन्हें जुगुप्सनीय या त्याज्य मानकर-- उनसे ममत्व भाव हटाकर अपने दायिक-गोत्रिक—अपने गोत्र या परिवार के जनों में धन का बंटवारा कर वे सुदर्शना नामक शिविका–पालखी में बैठे / देवों, मनुष्यों तथा असुरों की परिषद् उनके साथसाथ चली / शांखिक-शंख बजाने वाले, चाक्रिक-चक्र घुमाने वाले, लांगलिक-स्वर्णादि-निर्मित हल गले से लटकाये रहने वाले, मुखमांगलिक-मुह से मंगलमय शुभ वचन बोलने वाले, पुष्यमाणव-मागध, भाट, चारण आदि स्तुतिगायक, वर्धमानक-औरों के कंधों पर बैठे पुरुष, याख्यायक-शुभाशुभ-कथक, लेख--बांस के सिरे पर खेल दिखाने वाले, मंख-चित्रपट दिखाकर आजीविका चलाने वाले, घाण्टिक---घण्टे बजाने वाले पुरुष उनके पीछे-पीछे चले / वे इष्ट अभीसिप्त, कान्त-कमनीय शब्दमय, प्रिय-प्रिय अर्थ युक्त, मनोज्ञ-मन को सुन्दर लगने वाली, मनोरम–मन को बहुत रुचने वाली, उदार-शब्द एवं अर्थ की दृष्टि से वशद्ययुक्त, कल्याण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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