________________ द्वितीय वक्षस्कार] [57 कल्याणाप्तिसचक. शिव-निरुपद्रव. धन्य धन-प्राप्ति कराने वाली, मांगल्य–अनथेनिवारक सश्रीक–अनुप्रासादि अलंकारोपोत होने से शोभित, हृदयगमनीय-हृदय तक पहुँचने वाली, सुबोध, हृदय प्रहलादनीय हृद्गत क्रोध, शोक आदि ग्रन्थियों को मिटाकर प्रसन्न करने वाली, कर्ण-मननिर्वतिकर-कानों को तथा मन को शांति देने वाली, अपुनरुक्त-पुनरुक्ति-दोष वजित, अर्थशतिकसैकड़ों अर्थों से युक्त अथवा सैकड़ों अर्थ~-इष्ट-कार्य निष्पादक-वाणी द्वारा वे निरन्तर उनका इस प्रकार अभिनन्दन तथा अभिस्तवन स्तुति करते थे-वैराग्य के वैभव से आनन्दित ! अथवा जगन्नंद ! –जगत् को आनन्दित करने वाले, भद्र ! --जगत् का कल्याण करने वाले प्रभुवर ! आपकी जय हो, आपकी जय हो / आप धर्म के प्रभाव से परिषहों एवं उपसर्गों से अभीत-निर्भय रहें, आकस्मिक भय-संकट, भैरव-सिंह आदि हिंसक प्राणि-जनित भय अथवा भयंकर भय-धोर भय का सहिष्णुतापूर्वक सामना करने में सक्षम रहें / आप की धर्मसाधना निर्विघ्न हो। उन आकुल पौरजनों के शब्दों से आकाश आपूर्ण था। इस स्थिति में भगवान् ऋषभ राजधानी के बीचों-बीच होते हए निकले। सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार उनके दर्शन कर रहे थे, (सहस्रों नर-नारी अपने हृदय से उनका बार-बार अभिनन्दन कर रहे थे, सहस्रों नर-नारी अपने शुभ मनोरथ हम इनकी सन्निधि में रह पायें इत्यादि उत्सुकतापूर्ण मनोकामनाएँ लिए हुए थे। सहस्रों नर-नारी अपनी वाणी द्वारा उनका बार-बार अभिस्तवन-गुण-संकीर्तन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी उनकी कांति-देह-दीप्ति, उत्तम सौभाग्य प्रादि गुणों के कारण ये स्वामी हमें सदा प्राप्त रहें, बार-बार ऐसी अभिलाषा करते थे / भगवान् ऋषभ सहस्रों नर-नारियों द्वारा अपने हजारों हाथों से उपस्थापित अंजलिमाला-प्रणामांजलियों को अपना दाहिना हाथ ऊंचा उठाकर स्वीकार करते जाते थे, अत्यन्त कोमल वाणी से उनका कुशल-क्षेम पूछते जाते थे / यों वे घरों की हजारों पंक्तियों को लांधते हुए आगे बढ़े / ) सिद्धार्थवन, जहाँ वे गमनोधत थे, की ओर जाने वाले राजमार्ग पर जल का छिड़काव कराया हुआ था / वह झाड़-बुहारकर स्वच्छ कराया हुआ था, सुरभित जल से सिक्त था, शुद्ध था, वह स्थान-स्थान पर पुष्पों से सजाया गया था, घोड़ों, हाथियों तथा रथों के समूह, पदातियोंपैदल चलने वाले सैनिकों के समूह के पदाघात से--चलने से जमीन पर जमी हुई धूल धीरे-धीरे ऊपर की ओर उड़ रही थी। इस प्रकार चलते हुए वे जहाँ सिद्धार्थवन उद्यान था, जहाँ उत्तम अशोक वृक्ष था, वहाँ पाये / आकर उस उत्तम वृक्ष के नीचे शिविका को रखवाया, उससे नीचे उतरे / नीचे उतरकर स्वयं अपने गहने उतारे / गहने उतारकर उन्होंने स्वयं आस्थापूर्वक चार मुष्टियों द्वारा अपने केशों का लोच किया। वैसा कर निर्जल बेला किया / फिर उत्तराषाढा नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर अपने चार हजार उग्र आरक्षक अधिकारी, भोग-विशेष रूप से समादृत राजपुरुष या अपने मंत्रि-मंडल के सदस्य, राजन्य-राजा द्वारा वयस्य रूप में---मित्र रूप में स्वीकृत विशिष्ट जन या राजा के परामर्शक मंडल के सदस्य, क्षत्रिय-क्षत्रिय वंश के राजकर्मचारीवन्द के साथ एक देवदूष्य-दिव्य वस्त्र ग्रहण कर मुडित होकर अगार से---गृहस्थावस्था से अनगारिता-साधुत्व, जहाँ अपना कोई घर नहीं होता, सारा विश्व ही घर होता है, में प्रवजित हो गए। विवेचन–पुरुष को बहत्तर कलाओं का इस सूत्र में उल्लेख हुआ है / कलाओं का राजप्रश्नीय सूत्र आदि में वर्णन आया है / तदनुसार वे निम्नांकित हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org