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________________ द्वितीय वक्षस्कार] [55 __ उनमें से छठे क्षेमंधर, सातवें विमलवाहन, आठवें चक्षुष्मान, नौवें यशस्वान् तथा दशवें अभिचन्द्र-इन पाँच कुलकरों की मकार नामक दण्डनीति होती है। वे (उस समय के) मनुष्य मकार—'मा कुरु'- ऐसा मत करो-इस कथन रूप दण्ड से (लज्जित, विलज्जित, व्यर्द्ध, भीत, तूष्णीक तथा विनयावनत) हो जाते हैं। उनमें से ग्यारहवें चन्द्राभ, बारहवें प्रसेनजित्, तेरहवें मरुदेव, चौदहवें नाभि तथा पन्द्रहवें ऋषभ- इन पाँच कुलकरों की धिक्कार नामक नीति होती है / __वे (उस समय के) मनुष्य 'धिक्कार'---इस कर्म के लिए तुम्हें धिक्कार है, इतने कथनमात्र रूप दण्ड से अभिहत होकर लज्जित हो जाते हैं / विवेचन-हकार, मकार एवं धिक्कार, इन तीन दण्डनीतियों के कथन से स्पष्ट है कि जैसेजैसे काल व्यतीत होता जाता है, वैसे-वैसे मनुष्यों की मनोवृत्ति में परिवर्तन होता जाता है और अधिकाधिक कठोर दण्ड की व्यवस्था करनी पड़ती है। प्रथम तीर्थकर भ० ऋषभ : गृहवास : प्रव्रज्या 37. णाभिस्स णं कुलगरस्स मरुदेवाए भारिआए कुच्छिसि एत्थ णं उसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया, पढमजिणे, पढमकेवली, पढमतित्थगरे, पढमधम्मवरचाउरत-चक्कवट्टी समुप्पज्जित्था। तए णं उसमे अरहा कोसलिए बीसं पुव्वसयसहस्साई कुमारवासमझे वसइ, वसित्ता तेवट्ठि पुब्बसयसहस्साई महारायवासमझे वसइ / तेवट्टि पुब्वसयसहस्साई महारायवासमझे वसमाणे लेहाइप्रायो, गणिअप्पहाणाओ, सउणरुपज्जवसाणाओ बावरि कलामो चोट्टि महिलागुणे सिप्पसयं च कम्माणं तिण्णिवि पयाहिआए उवदिसइ / उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ / अभिसिचित्ता तेसीई पुव्वसयसहस्साई महारायवासमझे वसइ। वसित्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले, तस्स णं चित्तबहुलस्स णवमीपक्षणं दिवसस्स पच्छिमे भागे चइत्ता हिरण्णं, चइत्ता सुवण्णं, चइत्ता कोसं, कोट्टागारं, चइत्ता बलं, चइत्ता वाहणं, चइत्ता पुरं, चइत्ता अंतेउरं चइत्ता विउलघणकणगरयणमणिमोत्तिप्रसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावइज्जं विच्छड्डियित्ता, विगोवइत्ता दायं दाइमाणं परिभाएत्ता सुदंसणाए सीआए सदेवमणुप्रासुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे संखिन-चक्किअ-णंगलिअ-मुहमंगलिन-पूसमाणव-वद्धमाणग-प्राइवखग-लंख-मंख-घंटिअगणेहिं ताहिं इटाहि, कंताहि, पियाहिं, मणुण्णाहिं, मणामाहि, उरालाहिं, कल्लाणाहि, सिवाहि, धन्नाहि, मंगल्लाहि, सस्सिरिभाहि, हियगमणिज्जाहि, हिययपल्हायणिज्जाहि, कष्णमणणिव्वुइकराहि, अपुणरुत्ताहि, अदुसइआहि वहि अणवरयं अभिणंदता य अभिथुणता य एवं वयासी-जय जय नंदा! जय जय भद्दा ! धम्मेणं अभीए परीसहोवसग्गाणं, खंतिखमे भयभेरवाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउ त्ति कटु अभिणदंति अ अभिथुणंति प्र। तए णं उसने अरहा कोसलिए णयणमालासहस्सेहि पिच्छिज्जमाणे 2 एवं (हिययमालासहस्सेहिं अभिणंदिज्जमाणे अभिणंदिज्जमाणे, उन्नइज्जमाणे मणोरहमालासहस्सेहि विच्छिप्पमाणे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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