________________ 74] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र दधिमुख पर्वतों पर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया। देवराज ईशानेन्द्र ने उत्तरदिशावर्ती अंजनक पर्वत पर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया। उसके लोकपालों ने चारों दधिमुख पर्वतों पर अष्टाह्निक परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया / चमरेन्द्र ने दक्षिण दिशावर्ती अंजनक पर्वत पर, उसके लोकपालों ने दधिमुख पर्वतों पर परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया / बलि ने पश्चिम दिशावर्ती अंजनक पर्वत पर और उसके लोकपालों ने दधिमख पर्वतों पर परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया। इस प्रकार बहत से भवनपति, वानव्यन्तर आदि देवों ने अष्टदिवसीय महोत्सव मनाये / ऐसा कर वे जहाँ-तहाँ अपने विमान, भवन, सुधर्मा सभाएँ तथा अपने माणवक नामक चैत्यस्तंभ थे, वहाँ आये / आकर जिनेश्वर देव की डाढ आदि अस्थियों को वज्रमय-हीरों से निर्मित गोलाकार समुद्गक—भाजन-विशेष-- डिबियानों में रखा / रखकर अभिनव, उत्तम मालाओं तथा सुगन्धित द्रव्यों से अर्चना की। अर्चना कर अपने विपुल सुखोपभोगमय जीवन में घुलमिल गये / अवसर्पिणी : दुःषम-सुषमा 44- तीसे णं समाए दोहि सागरोवमकोडाकोडोहिं काले वीइक्कते अणंतेहि वण्णपज्जवेहि जाव' परिहायमाणे परिहायमाणे एत्थ णं दूसमसुसमा णामं समा काले पडिज्जिसु समणाउसो! तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए प्रागारभावपडोमारे पण्णत्ते ? गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते / से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा जाव' मणीहि उवसोभिए, तंजहा—कत्तिमेहि चेव अकत्तिमेहि चेव / तीसे णं भंते ! समाए भरहे मणुआणं केरिसए पायारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! तेसि मणुप्राणं छविहे संघयणे, छविहे संठाणे, बहूई धणूई उद्ध उच्चत्तणं, जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी पाउअं पालेंति / पालित्ता अप्पेगइआ णिरयगामी, (अप्पेगइआ तिरियगामी, अप्पेगइया मणुयगामी, अप्पेगइआ) देवगामी, अप्पेगइया सिझंति, बुज्झंति, (मुच्चंति, परिणिव्वायंति,) सव्वदुक्खाणमंतं करेंति / तीसे णं समाए तओ वंसा समुप्पज्जित्था, तंजहा–अरहंतवंसे, चक्कवट्टिवंसे, दसारवंसे / तोसे णं समाए तेवीसं तित्थयरा, इक्कारस चक्कवट्टी, णव बलदेवा, णव वासुदेवा समुप्पज्जित्था / [44] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय का तीसरे प्रारक का दो सागरोपम कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम-सुषमा नामक चौथा प्रारक प्रारंभ होता है / उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जाता है / भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र का आकार-स्वरूप कैसा होता है ? गौतम ! उस समय भरतक्षेत्र का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है / मुरज के ऊपरी भाग-चर्मपुट जैसा समतल होता है, कृत्रिम तथा अकृत्रिम मणियों से उपशोभित होता है / भगवन् ! उस समय मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा होता है ? 1. देखें सूत्र संख्या 28 2. देखें सूत्र संख्या 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org