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________________ द्वितीय वक्षस्कार] लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक अवशेष अनगारों के लिए। तब उदास, खिन्न एवं प्रांसू भरे देवराज देवेन्द्र शक ने भगवान् तीर्थकर के, जिन्होंने जन्म, जरा तथा मृत्यु को विनष्ट कर दिया थाइन सबसे जो अतीत हो गये थे, शरीर को शिविका पर आरूढ किया रखा। प्रारूढ कर चिता पर रखा। भवनपति तथा वैमानिक आदि देवों ने जन्म, जरा तथा मरण के पारगामी गणधरों एवं साधुनों के शरीर शिविका पर आरूढ किये / आरूढ कर उन्हें चिता पर रखा। देवराज शकेन्द्र ने तब अग्निकुमार देवों को पुकारा। पुकार कर कहा-देवानुप्रियो ! तीर्थकर की चिता में, (गणधरों की चिता में) तथा साधुओं की चिता में शीघ्र अग्निकाय की विकुणा करो—अग्नि उत्पन्न करो / ऐसा कर मुझे सूचित करो कि मेरे आदेशानुरूप कर दिया गया है / इस पर उदास, दुःखित तथा अश्रुपूरितनेत्र वाले अग्निकुमार देवों ने तीर्थंकर की चिता, गणधरों की चिता तथा अनगारों की चिता में अग्निकाय की विकुर्व णा की। देवराज शक्र ने फिर वायुकुमार देवों को पुकारा / पुकारकर कहा–तीर्थंकर की चिता, गणधरों की चिता एवं अनगारों की चिता में वायुकाय की विकुर्वणा करो, अग्नि प्रज्वलित करो, तीर्थंकर की देह को, गणधरों तथा अनगारों की देह को ध्मापित करो---अग्निसंयुक्त करो / विमनस्क, शोकान्वित तथा अश्रुपूरितनेत्र वाले वायुकुमार देवों ने चिताओं में वायुकाय की विकुणा की-पवन चलाया, तीर्थकर-शरीर (गणधर-शरीर) तथा अनगार-शरीर ध्मापित किये। देवराज शकेन्द्र ने बहुत से भवनपति तथा वैमानिक प्रादि देवों से कहा-देवानुप्रियो ! तीर्थंकर-चिता, गणधर-चिता तथा अनगार-चिता में विपुल परिमाणमय अगर, तुरुष्क तथा अनेक घटपरिमित घृत एवं मधु डालो। तब उन भवनपति आदि देवों ने तीर्थकर-चिता, (गणधर-चिता तथा अनगार-चिता में विपुल परिमाणमय अगर, तुरुष्क तथा अनेक घट-परिमित) घृत एवं मधु डाला। देवराज शकेन्द्र ने मेघकुमार देवों को पुकारा। पुकार कर कहा-देवानुप्रियो! तीर्थकरचिता, गणधर-चिता तथा अनगार-चिता को क्षीरोदक से निर्वापित करो शान्त करो-बुझाओ। मेघकुमार देवों ने तीर्थंकर-चिता, गणधर-चिता एवं अनगार-चिता को निर्वापित किया। तदनन्तर देवराज शक्रेन्द्र ने भगवान तीर्थंकर के ऊपर की दाहिनी डाढ–डाढ की हड्डी ली। असुराधिपति चमरेन्द्र ने नीचे की दाहिनी डाढ ली। वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बली ने नीचे की बाईं डाढ ली। बाकी के भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने यथायोग्य अंग-अंगों की हड्डियाँ ली / कइयों ने जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति से, कइयों ने यह समुचित पुरातन परंपरानुगत व्यवहार है, यह सोचकर तथा कइयों ने इसे अपना धर्म मानकर ऐसा किया। तदनन्तर देवराज, देवेन्द्र शक ने भवनपति एवं वैमानिक आदि देवों को यथायोग्य यों कहादेवानुप्रियो ! तीन सर्व रत्नमय विशाल स्तूपों का निर्माण करो-एक भगवान् तीर्थकर के चितास्थान पर, एक गणधरों के चिता-स्थान पर तथा एक अवशेष अनगारों के चिता-स्थान पर / उन बहुत से (भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक) देवों ने वैसा ही किया। फिर उन अनेक भवनपति, वैमानिक प्रादि देवों ने तीर्थंकर भगवान का परिनिर्वाण महोत्सव मनाया / ऐसा कर वे नन्दीश्वर द्वीप में आ गये। देवराज, देवेन्द्र शक ने पूर्व दिशा में स्थित अंजनक पर्वत पर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया। देवराज, देवेन्द्र शक्र के चार लोकपालों ने चारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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