________________ 72] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र भगवनो तित्थगरस्स चिहगाए, एगं गणहरचिइगाए, एगं अव सेसाणं अणगाराणं चिइगाए। तए णं ते बहवे (भवणवइवाणमंतर-जोइसिअ-वेमाणिए देवा) करेंति / तए णं ते बहवे भवणवइ जाव' वेमाणिमा देवा तित्थगरस्स परिणिव्वाणमहिमं करेंति, करेत्ता जेणेवे नंदीसरवरे दीवे तेणेव उवागच्छन्ति / तए णं से सक्के देविदे, देवराया पुरथिमिल्ले अंजणगपव्वए अट्ठाहि महामहिमं करेति / तए णं सक्कस्स देविदस्स देवरायस्स चत्तारि लोगपाला चउसु दहिमुहगपव्वएसु अट्ठाहियं महामहिमं करेंति / ईसाणे देविदे, देवराया उत्तरिल्ले अंजगणे अट्टाहि महामहिमं करेइ, तस्स लोगपाला चउसु दहिमुहगेसु प्रवाहिनं, चमरो अ दाहिणिल्ले अंजगणे, तस्स लोगपाला दहिमुहगपव्वएसु, बली पच्चथिमिल्ले अंजगणे, तस्स लोगपाला दहिमुहगेसु / तए णं ते बहवे भवणवइवाणमंतर (देवा) अट्ठाहित्रानो महामहिमानो करेंति, करित्ता जेणेव साइं 2 विमाणाई, जेणेव साइं 2 भवणाई, जेणेव सानो 2 सभाम्रो सुहम्माओ, जेणेव सगा 2 माणवगा चेइअखंभा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु जिणसकहानो पविखवंति, पक्खिवित्ता अग्गेहि वहिं मल्लेहि अ गंधेहि अ अच्चेति, अच्चत्ता विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणा विहरंति। [43] तब देवराज, देवेन्द्र शक्र ने बहुत से भवनपति, वानव्यन्तर तथा ज्योतिष्क देवों से कहा-देवानुप्रियो ! नन्दनवन से शीघ्र स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन-काष्ठ लाओ। लाकर तीन चितामों की रचना करो--एक भगवान् तीर्थकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक बाकी के अनगारों के लिए / तब वे भवनपति, (वानव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा) वैमानिक देव नन्दनवन से स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन-काष्ठ लाये। लाकर चिताएँ बनाई-एक भगवान् तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक बाकी के अनगारों के लिए। तब देवराज शक्रेन्द्र ने पाभियोगिक देवों को पुकारा / पुकार कर उन्हें कहा-देवानुप्रियो !क्षीरोदक समुद्र से शीघ्र क्षीरोदक लायो। वे आभियोगिक देव क्षीरोदक समुद्र से क्षीरोदक लाये / तत्पश्चात देवराज शकेन्द्र ने तीर्थंकर के शरीर को क्षीरोदक से स्नान कराया। स्नान कराकर सरस, उत्तम गोशीर्ष चन्दन से उसे अनुलिप्त किया। अनुलिप्त कर उसे हंस-सदृश श्वेत वस्त्र पहनाये / वस्त्र पहनाकर सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया--सजाया। फिर उन भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने गणधरों के शरीरों को तथा साधुओं के शरीरों को क्षीरोदक से स्नान कराया / स्नान कराकर उन्हें स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन से अनुलिप्त किया। अनुलिप्त कर दो दिव्य देवदूष्य--वस्त्र धारण कराये / वैसा कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। तत्पश्चात् देवराज शकेन्द्र ने उन अनेक भवनपति, वैमानिक आदि देवों से कहा- देवानुप्रियो! ईहामृग-भेड़िया, वृषभ-बैल, तुरंग--घोड़ा, (मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, कस्तूरी मृग, शरभ-- अष्टापद, चँवर, हाथी,) वनलता- के चित्रों से अंकित तीन शिविकाओं की विकुर्वणा करो-एक भगवान् तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक अवशेष साधुओं के लिए। इस पर उन बहुत से भवनपति, वैमानिक प्रादि देवों ने तीन शिविकाओं की विकुर्वणा की-एक भगवान् तीर्थकर के 1. देखें सूत्र यही - -- --- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org