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________________ तृतीय वक्षस्कार] [101 धनपति यक्षराज कुबेर सदृश लगता था / देवराज इन्द्र के तुल्य उसकी समृद्धि थी, जिससे उसका यश सर्वत्र विश्रुत था / कोरंट के पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था। श्रेष्ठ, श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे। राजा भरत गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होता हुआ सहस्रों ग्राम, प्राकर, नगर, खेट, कर्वट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, पाश्रम तथा संवाध—इनसे सुशोभित, प्रजाजनयुक्त पृथ्वी को वहाँ के शासकों को जीतता हुआ, उत्कृष्ट, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में ग्रहण करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करता हुया-पीछे-पीछे चलता हुआ, एक-एक योजन पर अपने पड़ाव डालता हुआ जहाँ मागध तीर्थ था, वहाँ आया। आकर मागध तीर्थ के न अधिक दूर, न अधिक समीप, बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा उत्तम नगर जैसा विजय स्कन्धावार--सैन्य-शिविर लगाया। फिर राजा ने वर्धकिरन चक्रवर्ती के चौदह रत्नों-विशेषातिशयित साधनों में से एक अति श्रेष्ठ सूत्रधार-- शिल्पकार को बुलाया। बुलाकर कहा–देवानुप्रिय ! शीघ्र ही मेरे लिए आवास-स्थान एवं पोषधशाला का निर्माण करो, प्राज्ञापालन कर मुझे सूचित करो। राजा द्वारा यों कहे जाने पर वह शिल्पकार हर्षित तथा परितुष्ट हुआ / उसने अपने चित्त में प्रानन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव किया। उसने हाथ जोड़कर 'स्वामी ! जो आज्ञा' कहकर विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार किया। उसने राजा के लिए आवास-स्थान तथा पोषधशाला का निर्माण किया / निर्माण कर राजा को शीघ्र ज्ञापित किया कि उनके आदेशानुरूप कार्य हो गया है। तब राजा भरत आभिषेक्य हस्तिरत्न से नीचे उतरा / नीचे उतरकर जहाँ पोषधशाला थी, वहाँ आया / आकर पोषधशाला में प्रविष्ट हुआ, पोषधशाला का प्रमार्जन किया, सफाई की / प्रमार्जन कर दर्भ-डाभ का बिछौना बिछाया। बिछौना बिछाकर उस पर स्थित हुआ—बैठा / बैठकर उसने मागध तीर्थकुमार देव को उद्दिष्ट कर तत्साधना हेतु तीन दिनों का उपवास-तेले की तपस्या स्वीकार की। तपस्या स्वीकार कर पोषधशाला में पोषध लिया-व्रत स्वीकार किया। मणिस्वर्णमय आभूषण शरीर से उतार दिये / माला, वर्णक-चन्दनादि सुगन्धित पदार्थों के देहगत विलेपन आदि दूर किये, शस्त्र-कटार आदि, मूसल–दण्ड, गदा आदि हथियार एक ओर रखे / यों डाभ के बिछौने पर अवस्थित राजा भरत निर्भीकता-निर्भयभाव से प्रात्मबलपूर्वक तेले की तपस्या में प्रतिजागरित–सावधानी से संलग्न हुअा। तेले की तपस्या परिपूर्ण हो जाने पर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला थी, वहाँ आया। आकर अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उन्हें इस प्रकार कहा–देवानुप्रियो ! घोड़े, हाथी, रथ एवं उत्तम योद्धाओं--पदातियों से सुशोभित चतुरंगिणी सेना को शीघ्र सुसज्ज करो। चातुर्घट-चार घंटाओं से युक्त अश्वरथ तैयार करो। यों कहकर राजा स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर, स्नानादि से निवृत्त होकर राजा से निकला। वह श्वेत, विशाल बादल से निकले, ग्रहगण से देदीप्यमान, आकाश-स्थित तारों के मध्यवर्ती चन्द्र के सदृश देखने में बड़ा प्रिय लगता था। स्नानघर से निकलकर घोड़े, हाथी, रथ, अन्यान्य उत्तम वाहन तथा (योद्धाओं के विस्तार से युक्त) सेना से सुशोभित वह राजा जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, चातुर्घट अश्वरथ था, वहाँ आया / आकर रथारूढ हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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