________________ प्रथम वक्षस्कार] लम्बी तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ी हैं। उनकी चौड़ाई दश-दश योजन तथा लम्बाई पर्वत जितनी ही है। वे दोनों पार्श्व में दो-दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो-दो वनखण्डों से परिवेष्टित हैं / वे पद्मवरवेदिकाएं ऊँचाई में प्राधा योजन, चौड़ाई में पांच सौ धनुष तथा लम्बाई में पर्वत-जितनी ही हैं / वनखंड भी लम्बाई में वेदिकाओं जितने ही हैं / उनका वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। 14. विज्जाहरसेढीणं भंते ! भूमीणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? / गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पणत्ते, से जहाणामए आलिंगपुरखरेइ वा जाव' गाणाविहपंचवणेहि मणीहि, तणेहि उवसोभिए, तं जहा-कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहिं चेव / तत्थ णं दाहिणिल्लाए विज्जाहरसेढोए गगणवल्लभपामोक्खा पण्णासं विज्जाहरणगरावासा पणत्ता, उत्तरिल्लाए विज्जाहरसेढीए रहनेउरचक्कवालपामोक्खा सढि विज्जाहरणगरावासा पणत्ता, एवामेव सपुष्वावरेणं दाहिणिल्लाए, उत्तरिल्लाए विज्जाहरसेढीए एगं दसुत्तरं विज्जाहरणगरावाससयं भवतीतिमवखायं, ते विज्जाहरणगरा रिसस्थिमियसमिद्धा, पमुइयजणजाणवया, (प्राइणजणमणूसा, हतसयसहस्ससंकिट्ठविकिट्ठलट्ठपण्णत्तसेउसीमा, कुक्कुडसंडेयगामपउरा, उच्छ जवसालिकलिया, गोमहिसगवेलगप्पभूया, आयारवंतचेइयजुवइविविहसप्णिविट्ठबहुला, उक्कोडियगायगंठिमेयगभउत्तवकरखंडरवखरहिया, खेमा,णिस्वदवा, सुभिक्खा, वीसत्थसुहावासा, अणेगकोडिकुडुबियाइपणियसुहा, गडणट्टगजल्लमल्लमुट्टियवेलंबगकहगपवगलासग-आइवखगमंखलखतूणइल्लतुचवीणिय-प्रणेतालायरा - गुचरिया, पारामुज्जाणअगडतलागदीहियवप्पिणगुणोववेया, नंदणवणसन्निभप्पगासा, उन्विद्धविउलगंभीरखायफलिहा, चक्कगयभुसुढिओरोहसयघिजमलकवाडघणदुप्पवेसा, धणकुडिलवंकपागारपरिविखत्ता, कविसीसगवट्टरइयसंठियविरायमाणा, अट्टालयचरियदारगोपुरतोरणसमुष्णयसुविभत्तरायमग्गा, छेयायरियरइयदढफलिहइंदकीला, विवणिवणिछित्तसिप्पियाइश्णणिध्वुयसुहा, सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरपणियावविविहवत्थुपरिमंडिया, सुरम्मा, नरवइपविइष्णमहिवइपहा, अणेगवरतुरगमत्तकुजररहपहकरसीयसंदमाणी आइप्णजाणजुग्गा, विमउलणवणलिणिसोभियजला, पंडुरवरभवणसण्णिमहिया, उत्ताणणयणपेच्छणिज्जा, पासादीया, दरिसणिज्जा, अभिरुवा) पडिरूवा। तेसु णं विज्जाहरणगरेसु विज्जाहररायाणो परिवसंति महयाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसारा रायवष्णओ भाणिअन्यो। [14] भगवन् ! विद्याधर-श्रेणियों की भूमि का आकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उनका भूमिभाग बड़ा समतल रमणीय है / वह मुरज के ऊपरी भाग आदि की ज्यों समतल है / वह बहुत प्रकार की कृत्रिम, अकृत्रिम मणियों तथा तृणों से सुशोभित है / दक्षिणवर्ती विद्याधर श्रेणि में गगनवत्लभ आदि पचास विद्याधर-नगर हैं- राजधानियाँ हैं। उत्तरवर्ती विद्याधर श्रेणि में रथनपुर चक्रवाल आदि साठ नगर हैं-राजधानियों हैं। इस प्रकार दक्षिणवर्ती एवं उत्तरवर्ती-दोनों विद्याधर-श्रेणियों के नगरों की-राजधानियों की संख्या एक सौ दश है। वे 1. देखें सूत्र संख्या 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org