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________________ पञ्चम वक्षस्कार [295 करेइ 2 सा करयल जाव' एवं बयासी-णमोत्थु ते रयणकुच्छिधारए एवं जहा दिसाकुमारीमो (जगप्पईवदाईए सव्वजगमंगलस्स, चक्खुणो प्रमुत्तस्स, सव्वजगजीववच्छलस्स, हिअकारगमग्गदेसियवागिद्धिविभुप्पभुस्स, जिणस्स, णाणिस्स, नायगस्स, बुहस्स, बोहगस्स, सव्वलोगनाहस्स, निम्ममस्स, पवरकुलसमुन्भवस्स जाईए खत्तिस्स जंसि लोगुत्तमस्स जणणी) धण्णासि, पुण्णासि, तं कयस्थाऽसि, अहण्णं देवाणुप्पिए ! सक्के णाम देविन्दे, देवराया भगवनो तित्थयरस्स जम्मणमहिम करिस्सामि, तं गं तुम्नाहिं ण भाइव्वंति कटु प्रोसोणि दलयइ 2 ता तित्थयरपडिरूवगं विउठवइ, तित्थयरमाउपाए पासे ठवइ 2 ता पञ्च सक्के विउव्वइ विउवित्ता एगे सक्के भगवं तित्थयां करयलपुडेणं गिण्हइ, एगे सक्के पिट्टओ प्रायवत्तं धरेइ, दुवे सक्का उभो पासिं चामरुक्खेवं करेन्ति, एगे सक्के पुरो बज्जपाणी पकडइत्ति। तए णं से सक्के देविन्दे देवराया अण्णेहिं बहूहिं भवणवइवाणमन्तर-जोइस-बेमाणिएहि देवेहिं देवीहि अ सद्धि संपरिचुडे सविडोए जाव' पाइएणं ताए उविकटाए जाव' वीईवयमाणे जेणेव मन्दरे पव्वए, जेणेव पंडगवणे, जेणेव अभिसेअसिला, जेणेव अभिसेनसीहासणे, तेणेव उवागच्छइ 2 ता सोहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति / [150] पालक देव द्वारा दिव्य यान-विमान की रचना संपन्न कर दिये जाने का संवाद सुनकर (देवेन्द्र, देवराज) शक्र मन में हर्षित होता है। जिनेन्द्र भगवान् के सम्मुख जाने योग्य, दिव्य, सर्वालंकारविभूषित, उत्तर वैक्रिय रूप की विकुर्वणा करता है। वैसा कर वह सपरिवार आठ अग्रम हिषियों-प्रधान देवियों, नाट्यानीक-नाटय-सेना, गन्धर्वानीकगन्धर्व-सेना के साथ उस यान-विमान की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपनक से-तीन सीढियों द्वारा विमान पर आरूढ होता है / विमानारूढ़ होकर (जहाँ सिंहासन है, वहाँ प्राता है। वहाँ प्राकर) वह पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर आसीन होता है। उसी प्रकार सामानिक देव उत्तरी त्रिसोपानक से विमान पर प्रारूढ होकर पूर्व-न्यस्त-पहले से रखे हुए उत्तम आसनों पर बैठ जाते हैं। बाकी के देव-देवियाँ दक्षिणदिग्वर्ती त्रिसोपानक से विमान पर आरूढ होकर (अपने लिए पूर्व-न्यस्त उत्तम आसनों पर) उसी तरह बैठ जाते हैं। शक्र के यों विमानारूढ होने पर आगे आठ मंगलक-मांगलिक द्रव्य प्रस्थित होते हैं / तत्पश्चात् शुभ शकुन के रूप में समायोजित, प्रयाण-प्रसंग में दर्शनीय जलपूर्ण कलश, जलपूर्ण झारी, चॅवर सहित दिव्य छत्र, दिव्य पताका, वायु द्वारा उड़ाई जाती, अत्यन्त ऊँची, मानो आकाश को छूती हुई-सी विजय-वैजयन्ती ये क्रमशः आगे प्रस्थान करते हैं। तदनन्तर छत्र, विशिष्ट वर्णकों एवं चित्रों द्वारा शोभित निर्जल मारी, फिर वज्ररत्नमय, वर्तुलाकार, लष्ट-मनोज्ञ संस्थानयुक्त, सुश्लिष्ट-मसूण-चिकना, परिघृष्ट--कठोर शाण पर तरासी हुई, रगड़ी हुई पाषाण-प्रतिमा की ज्यों स्वच्छ, स्निग्ध, मष्ट-सुकोमल शाण पर घिसी हुई 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. देखें सूत्र संख्या 52 3. देखे सूत्र संख्या 34 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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