________________ 296 [जम्मूदीपप्राप्तिसूब पाषाण-प्रतिमा की तरह चिकनाई लिये हुए मृदुल, सुप्रतिष्ठित-सीधा संस्थित, विशिष्ट-प्रतिशययुक्त, अनेक उत्तम, पंचरंगी हजारों कुडभियों-छोटी पताकाओं से अलंकृत, सुन्दर, वायु द्वारा हिलती विजय-वैजयन्ती, ध्वजा, छत्र एवं अतिछत्र से सुशोभित, तुंग-उन्नत आकाश को छूते हुए से शिखर युक्त, एक हजार योजन ऊँचा, अतिमहत्-विशाल महेन्द्रध्वज यथाक्रम आगे प्रस्थान करता है। उसके बाद अपने कार्यानुरूप वेष से युक्त, सुसज्जित, सर्वविध अलंकारों से विभूषित पाँच सेनाएँ, पाँच सेनापति-देव (तथा अन्य देव) प्रस्थान करते हैं। फिर बहुत से अभियोगिक देव-देवियाँ अपने-अपने रूप, (अपने-अपने वैभव, अपने-अपने) नियोग-उपकरण सहित देवेन्द्र, देवराज शक के आगे, पीछे यथाक्रम प्रस्थान करते हैं। तत्पश्चात् सौधर्मकल्पवासी अनेक देव-देवियाँ सब प्रकार की समृद्धि के साथ विमानारूढ होते हैं, देवेन्द्र, देवराज शक के आगे पीछे तथा दोनों ओर प्रस्थान करते हैं। इस प्रकार विमानस्थ देवराज शक्र पाँच सेनाओं से परिवत (आगे प्रकृष्यमाण-निर्गम्यमान वज्ररत्नमय-हीरकमय, वर्तुलाकार-गोल, लष्ट-मनोज्ञ संस्थान युक्त, सुश्लिष्ट-मसृण, चिकने, परिघुष्ट-कठोर शाण पर तरासी हुई, रगड़ी हुई पाषाण-प्रतिमा की ज्यों स्वच्छ, स्निग्ध, मष्टसुकोमल शाण पर घिसी हुई पाषाण-प्रतिमा की ज्यों चिकनाई लिये हुए मदुल, सुप्रतिष्ठित सीधे संस्थित, विशिष्ट अतिशय युक्त, अनेक, उत्तम, पंचरंगी हजारों कुडभियों-छोटी पताकाओं से अलंकृत, सुन्दर, वायु द्वारा हिलती विजय-वैजयन्ती, ध्वजा, छत्र एवं अतिछत्र से सुशोभित, तुंगउन्नत, आकाश को छूते हुए शिखर से युक्त, एक हजार योजन ऊँचे, अति महत्-विशाल, महेन्द्रध्वज से युक्त.) चौरासी हजार सामानिक देवों (पाठ सपरिवार अग्रम हिषियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, चारों ओर चौरासी-चौरासी हजार अंगरक्षक देवों तथा अन्य बहुत से देवों और देवियों) से संपरिवत, सब प्रकार की ऋद्धि-वैभव के साथ, वाद्य-निनाद के साथ सौधर्मकल्प के बीचोंबीच होता हुमा, दिव्य देव-ऋद्धि (देव-द्युति, देवानुभाव-देव-प्रभाव) उपदर्शित करता हुआ, जहाँ सौधर्मकल्प का उत्तरी निर्याण-मार्ग बाहर निकलने का रास्ता है, वहाँ प्राता है। वहाँ आकर एक-एक लाख योजन-प्रमाण विग्रहों-गन्तव्य क्षेत्रातिक्रम रूप गमनकम द्वारा चलता हुआ, उत्कृष्ट, तीव देव-गति द्वारा आगे बढ़ता तिर्यक ---तिरछे असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हुआ, जहाँ नन्दीश्वर द्वीप है, दक्षिण-पूर्व-आग्नेय कोणवर्ती रतिकर पर्वत है, वहाँ आता है / जैसा सूर्याभदेव का वर्णन है, आगे वैसा ही शकेन्द्र का समझना चाहिए / फिर शक्रेन्द्र दिव्य देव-ऋद्धि का दिव्य यान-विमान का प्रतिसंहरण-संकोचन करता हैविस्तार को समेटता है / वैसा कर, जहाँ (जम्बूद्वीप, भरत क्षेत्र) भगवान् तीर्थंकर का जन्म-नगर, जन्म-भवन होता है, वहाँ आता है। प्राकर वह दिव्य यान-विमान द्वारा भगवान् तीर्थंकर के जन्मभवन की तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करता है। वैसा कर भगवान् तीर्थकर के जन्म-भवन के उत्तर-पूर्व में ईशान कोण में अपने दिव्य विमान को भूमितल से चार अंगुल ऊँचा ठहराता है। विमान को ठहराकर अपनी आठ अग्रमहिषियों, गन्धर्वानीक तथा नाट्यानीक नामक दो अनीकोंसेनामों के साथ उस दिव्य-यान-विमान से पूर्व दिशावर्ती तीन सीढियों द्वारा नीचे उतरता है। फिर देवेन्द्र, देवराज शक्र के चौरासी हजार सामानिक देव उत्तरदिशावर्ती तीन सीढ़ियों द्वारा उस दिव्य यान-विमान से नीचे उतरते हैं। बाकी के देव-देवियाँ दक्षिण-दिशावर्ती तीन सीढ़ियों द्वारा यानविमान से नीचे उतरते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org