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________________ पञ्चम वक्षस्कार] [297 ___ तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र चौरासी हजार सामानिक आदि अपने सहवर्ती देव-समुदाय से संपरिक्त, सर्व ऋद्धि-वैभव-समायुक्त, नगाड़ों के गजते हुए निर्घोष के साथ, जहाँ भगवान् तीर्थंकर थे और उनकी माता थी, वहाँ आता है। आकर उन्हें देखते ही प्रणाम करता है। भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी माता की तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करता है। वैसा कर, हाथ जोड़, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक पर घुमाकर भगवान् तीर्थंकर की माता को कहता है रत्नकुक्षिधारिके-अपनी कोख में तीर्थंकर रूप रत्न को धारण करनेवाली ! जगत्प्रदीपदायिके-जगद्वर्ती जनों के सर्व-भाव-प्रकाशक तीर्थकर रूप दीपक प्रदान करने वाली ! आपको नमस्कार हो। (समस्त जगत् के लिए मंगलमय, नेत्र-स्वरूप-सकल-जगद्-भाव-दर्शक, मूर्त--- चक्षाह्य, जगत के समस्त प्राणियों के लिए वात्सल्यमय. हितप्रद सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप मार्ग उपदिष्ट करनेवाली, विभु-सर्वव्यापक-समस्त श्रोतृवन्द के हृदयों में तत्तद्भाषानुपरिणत हो अपने तात्पर्य का समावेश करने में समर्थ वाणी की ऋद्धि–वाग्वैभव से युक्त, जिन-रागद्वेष-विजेता, ज्ञानी–सातिशय ज्ञान युक्त, नायक, धर्मवरचक्रवर्ती-उत्तम धर्म-चक्र का प्रवर्तन करनेवाले, बुद्ध-ज्ञात-तत्त्व, बोधक-दूसरों को तत्त्व-बोध देने वाले, सर्व-लोक-नाथ–समस्त प्राणिवर्ग में ज्ञान-बीज का आधान एवं संरक्षण कर उनके योग-क्षेमकारी, निर्मम-ममता रहित, उत्तम कुल, क्षत्रिय जाति में उद्भूत, लोकोत्तम लोक में सर्वश्रेष्ठ तीर्थंकर भगवान् की प्राप जननी हैं / ) आप धन्य, पुण्य एवं कृतार्थ कृतकृत्य हैं / देवानुप्रिये ! मैं देवेन्द्र, देवराज शक भगवान् तीर्थंकर का जन्म-महोत्सव मनाऊँगा, अत: आप भयभीत मत होना / ' यों कहकर वह तीर्थकर की माता को अवस्वापिनी--दिव्य मायामयी निद्रा में सुला देता है / फिर वह तीर्थकरसदृश प्रतिरूपक-शिशु की विकुर्वणा करता है / उसे तीर्थकर की माता की बगल में रख देता है।' शक्र फिर पाँच शकों की विकर्वणा करता है वैक्रिय लब्धि द्वारा स्वयं पांच शकों के रूप में परिणत हो जाता है। एक शक्र भगवान् तीर्थंकर को हथेलियों के संपुट द्वारा उठाता है, एक शक्र पीछे छत्र धारण करता है, दो शक्र दोनों ओर चॅवर डुलाते हैं, एक शक हाथ में बज लिये आगे चलता है। तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र अन्य अनेक भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवदेवियों से घिरा हुआ, सब प्रकार ऋद्धि से शोभित, उत्कृष्ट, त्वरित देव-गति से चलता हुआ, जहाँ मन्दर पर्वत, पण्डक वन, अभिषेक-शिला एवं अभिषेक-सिंहासन है, वहाँ अाता है, पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर बैठता है। ईशान प्रभूति इन्द्रों का प्रागमन 151. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविन्दे, देवराया, सूलपाणी, वसभवाहणे, सुरिन्दे, उत्तरद्धलोगाहिवई अट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहिवई प्ररयंवरवस्थधरे एवं जहा सक्के इमं णाणतं-महाघोसा घण्टा, लहुपरक्कमो पायत्ताणियाहिबई, पुष्फनो विमाणकारी, दक्खिणे निज्जाणमगे, उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपव्वओ मन्दरे समोसरिओ (वंदइ, णमंसइ) पज्जुवासइत्ति / एवं अवसिट्ठावि इन्दा भाणिवा जाव अच्चुरोत्ति, इमं णाणत्तं१. इसका अभिप्राय यह कि यदि कोई निकटवर्ती दुष्ट देव-देवी कुतूहलवश या दुरभिप्रायवश माता की निद्रा तोड़ दे तो माता को पुत्र-विरह का दुःख न हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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