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________________ सप्तम वक्षस्कार विवेचन--ज्ञाप्य है कि यहाँ निधि-रत्नों, पञ्चेन्द्रिय-रत्नों तथा एकेन्द्रिय-रत्नों का वर्णन चक्रवतियों की अपेक्षा से है। जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र के बत्तीस विजयों में बत्तीस तथा भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में एक-एक तीर्थकर जब होते हैं तब तीर्थकरों की उत्कृष्ट संख्या 34 होती है / जब जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में शोता महानदी के दक्षिण और उत्तर भाग में एक-एक और शीतोदा महानदो के दक्षिण और उत्तर भाग में एक-एक चक्रवर्ती होता है, तब जघन्य चार चक्रवर्ती होते हैं। जब महाविदेह के 32 विजयों में से अट्ठाईस विजयों में 28 चक्रवर्ती और भरत में एक एवं ऐरवत में एक चक्रवर्ती होता है तब समग्र जम्बूद्वीप में उनकी उत्कृष्ट संख्या तीस होती है / स्मरण रहे कि जिस समय 28 चक्रवर्ती 28 विजयों में होते हैं उस समय शेष चार विजयों में चार वासुदेव होते हैं और जहाँ वासुदेव होते हैं वहाँ चक्रवर्ती नहीं होते / अतएव चक्रवतियों की उत्कृष्ट संख्या जम्बूद्वीप में तीस ही बतलाई गई है। चक्रवर्तियों की जघन्य संख्या की संगति तीर्थंकरों की संख्या के समान जान लेना चाहिए / जब चक्रवतियों को उत्कृष्ट संख्या तीस होती है तब वासुदेवों की जघन्य संख्या चार होतो है और जब वासुदेवों की उत्कृष्ट संख्या 30 होती है तब चक्रवर्ती की संख्या 4 होती है / बलदेवों की संख्या की संगति वासुदेवों के समान जान लेना चाहिए क्योंकि ये दोनों सहचर होते हैं। प्रत्येक चक्रवर्ती के नौ-नौ निधान होते हैं। उनके उपयोग में आने की जघन्य और उत्कृष्ट संख्या चक्रवर्तियों की जघन्य और उत्कृष्ट संख्या पर प्राधत है। निधानों और रत्नों की संख्या के सम्बन्ध में भी यही जानना चाहिए / प्रत्येक चक्रवर्ती के नौ निधान होते हैं। नौ को चौतीस से गुणित करने पर 306 संख्या पाती है। किन्तु उनमें से चक्रवतियों के उपयोग में आने वाले निधान जघन्य छत्तीस और अधिक से अधिक 270 हैं। चक्रवर्ती के सात पंचेन्द्रियरत्न इस प्रकार हैं-१. सेनापति, 2. गाथापति, 3. वर्द्धकी, 4. पुरोहित, 5. गज, 6. अश्व, 7. स्त्रीरत्न / एकेन्द्रिय रत्न-१. चक्ररत्न, 2. छत्ररत्न, 3. चर्मरत्न, 4. दण्डरत्न, 5. असिरत्न, 6. मणिरत्न, 7. काकणीरत्न / जम्बूद्वीप का विस्तार 206. जम्बुद्दोवे णं भन्ते ! दोवे केवइयं पायाम-विक्खंभेणं, केवइ परिक्खेवेणं, केवइअं उन्वेहेणं, केवइयं उद्ध उच्चत्तेणं, केवइ सध्वग्गेणं पण्णते? / __ गोयमा ! जम्बुद्दोवे दोवे एगं जोअण-सयसहस्सं पायाम-विक्खंभेणं, तिणि जोयण-सयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोणि अ सत्तावोसे जोग्रणसए तिण्णि अ कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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