________________ प्रथम वक्षस्कार] [23 गौतम ! मन्दर पर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्यात द्वीप और समुद्र लाँघकर जाने पर अन्य जम्बूद्वीप है। वहाँ दक्षिण दिशा में बारह सौ योजन नीचे जाने पर दक्षिणार्ध भरतकूट देव की दक्षिणार्धभरता नामक राजधानी है। उसका वर्णन विजयदेव की राजधानी के सदृश जानना चाहिए। (दक्षिणार्धभरतकट, खंडप्रपातकट, मणिभद्रकट, वैताढ्यकट, पूर्णभद्रकुट, तिमिसगुहाकूट, उत्तरार्धभरतकट,) वैश्रमणकट तक-इन सबका वर्णन सिद्धायतनकट जैसा है। ये क्रमशः पूर्व से पश्चिम की ओर हैं। इनके वर्णन की एक गाथा है वैताढ्य पर्वत के मध्य में तीन कूट स्वर्णमय हैं, बाकी के सभी पर्वतकूट रत्नमय हैं। मणिभद्रकूट, वैताढ्यकूट एवं पूर्णभद्रकूट-ये तीन कट स्वर्णमय हैं तथा बाकी के छह कूट रत्नमय हैं / दो पर कृत्यमालक तथा नृत्यमालक नामक दो विसदृश नामों वाले देव रहते हैं / बाकी के छह कूटों पर कूटसदृश नाम के देव रहते हैं। कूटों के जो-जो नाम हैं, उन्हीं नामों के देव वहाँ हैं / उनमें से प्रत्येक पल्योपमस्थितिक है / मन्दर पर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्येय द्वीप समुद्रों को लांघते हुए अन्य जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन नीचे जाने पर उनकी राजधानियां हैं। उनका वर्णन विजया राजधानी जैसा समझ लेना चाहिए। 21. से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ वेअड्डे पव्वए ? गोयमा ! बेअड्डेणं पव्वए भरहं वासं दुहा विभयमाणे 2 चिट्ठइ, तंजहा–दाहिणड्डभरहं च उत्तरभरहं च / वेअड्डगिरिकुमारे अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव' पलिओवमटिइए परिवसइ / से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-वेअड्डे पव्वए 2 / अदुत्तरं च णं गोयमा! वेअड्डस्स पव्वयस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जं ण कयाइ ण आसि, ण कयाइ ण अस्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुवि च, भवइ अ, भविस्सइ अ, धुवे, णिअए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे। [21] भगवन् ! वैताढ्य पर्वत को 'वैताढ्य पर्वत' क्यों कहते हैं ? गौतम ! वैताढ्य पर्वत भरत क्षेत्र को दक्षिणार्ध भरत तथा उत्तरार्ध भरत नामक दो भागों में विभक्त करता हुआ स्थित है। उस पर वैताढ्यगिरिकुमार नामक परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपमस्थितिक देव निवास करता है / इन कारणों से वह वैताढ्य पर्वत कहा जाता है। . गौतम ! इसके अतिरिक्त वैताढ्य पर्वत का नाम शाश्वत है। यह नाम कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, यह कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है और यह कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है। यह था, यह है, यह होगा, यह ध्रव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं नित्य है। जम्बूद्वीप में उत्तरार्ध भरत का स्थान : स्वरूप 22. कहि णं भते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरड्डभरहे णामं वासे पण्णत्ते ? गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, वेअट्टस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, पुरस्थिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे उत्तरढभरहे 1. देखें सूत्र संख्या 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org