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________________ 22] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र तिमिसगुहाकूडे, उत्तरभरहकूडे,) येसमणकूडे परोप्परं पुरस्थिमपच्चस्थिमेणं, इमेसि वण्णावासे गाहा मझ वेअड्ढस्स उ कणगमया तिण्णि होंति कूडा उ / सेसा पव्वयकूडा सव्वे रयणामया होति // मणिभद्दकूडे 1, वेअडकूडे 2, पुण्णभद्दकूडे ३–एए तिण्णि कूडा कणगामया, सेसा छप्पि रयणमया दोण्हं विसरिसणायमा देवा कयमालए चेव गट्टमालए चेव, सेसाणं छण्हं सरिसणामयाजण्णामया य कूडा तन्नामा खलु हवंति ते देवा। पलिओवमट्टिईया हवंति पत्तेयं पत्तेयं / रायहाणोश्रो जबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं तिरिनं असंखेज्जदीवसमुद्दे वोईवइत्ता अण्णमि जंबुद्दीवे दीवे बारस जोअणसहस्साई ओगाहिता, एत्थ णं रायहाणीयो भाणिअवाओ विजयरायहाणीसरिसयाओ। [20] भगवन् ! वैताढ्य पर्वत का दक्षिणार्ध भरतकूट नामक कूट कहाँ है ? गौतम ! खण्डप्रपातकट के पूर्व में तथा सिद्धायतनकूट के पश्चिम में वैताढ्य पर्वत का दक्षिणार्ध भरतकट है। उसका परिमाण आदि वर्णन सिद्धायतनकट के बराबर है। ( ह योजन एक कोस ऊँचा, मूल में छह योजन एक कोस चौडा, मध्य में कुछ कम पांच योजन चौड़ा तथा ऊपर कुछ अधिक तीन योजन चौड़ा है / मूल में उसकी परिधि कुछ कम बाईस योजन की, मध्य में कुछ कम पन्द्रह योजन की तथा ऊपर कुछ अधिक नौ योजन की है। वह मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्तसंकुचित या संकड़ा तथा ऊपर पतला है। वह गोपुच्छसंस्थानसंस्थित है— गाय के पूछ के आकारजैसा है / वह सर्व रत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल तथा सुन्दर है। वह एक पद्मवरवेदिका एवं एक वनखंड से सब ओर से परिवेष्टित है। दोनों का परिमाण पूर्ववत् है। दक्षिणार्ध भरतकूट के ऊपर अति समतल तथा रमणीय भूमिभाग है / वह मुरज या ढोलक के ऊपरी भाग जैसा समतल है / वहाँ वाणव्यन्तर देव और देवियां विहार करते हैं।) दक्षिणार्ध भरतकूट के प्रति समतल, सुन्दर भूमिभाग में एक उत्तम प्रासाद है। वह एक कोस ऊँचा और प्राधा कोस चौड़ा है / अपने से निकलती प्रभामय किरणों से वह हँसता-सा प्रतीत होता है, बड़ा सुन्दर है / उस प्रासाद के ठीक बीच में एक विशाल मणिपीठिका है। वह पाँच सौ धनुष लम्बीचौड़ी तथा अढाई सी धनुष मोटी है, सर्वरत्नमय है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक सिंहासन है। उसका विस्तृत वर्णन अन्यत्र द्रष्टव्य है। भगवन् ! उसका नाम दक्षिणार्ध भरतकूट किस कारण पड़ा ? गौतम ! दक्षिणार्ध भरतकूट पर अत्यन्त ऋद्धिशाली, (द्युतिमान, बलवान्, यशस्वी, सुखसम्पन्न एवं.सौभाग्यशाली) एक पल्योपमस्थितिक देव रहता है। उसके चार हजार सामानिक देव, अपने परिवार से परिवृत चार अग्रमहिषियाँ, तीन परिषद्, सात सेनाएँ, सात सेनापति तथा सोलह हजार प्रात्मरक्षक देव हैं / दक्षिणार्ध भरतकूट की दक्षिणार्धा नामक राजधानी है, जहाँ वह अपने इस देव-परिवार का तथा बहुत से अन्य देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ सुखपूर्वक निवास करता है, विहार करता है--सुख भोगता है / भगवन ! दक्षिणार्ध भरतकूट नामक देव की दक्षिणार्धा नामक राजधानी कहाँ है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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