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________________ [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र छट्ठभत्तस्स आहारट्ठ, चउट्टि राइंदिआई सारखंति, दो पलिअोवमाइं पाऊ सेसं तं चेव / तीसे णं समाए चउविवहा मणुस्सा अणुसज्जित्था, तंजहा-एका 1, पउरजंघा 2, कुसुमा 3, सुसमणा 4 / [33] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय का---उस पारक का प्रथम प्रारक का जब चार सागर कोडा-कोडी काल व्यतीत हो जाता है, तब अवसर्पिणी काल का सुषमा नामक द्वितीय प्रारक प्रारम्भ हो जाता है। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय, अनन्त गंध-पर्याय, अनन्त रस-पर्याय, अनन्त स्पर्शपर्याय, अनन्त संहनन-पर्याय, अनन्त संस्थान-पर्याय, अनन्त उच्चत्व-पर्याय, अनन्त आयु-पर्याय, अनन्त गुरु-लघु-पर्याय, अनन्त अगुरु-लघु-पर्याय, अनन्त उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम-पर्यायइनका अनन्तगुण परिहानि-क्रम से ह्रास होता जाता है। - भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत इस अवपिणी के सुषमा नामक मारक में उत्कृष्टता की पराकाष्ठा-प्राप्त समय में भरतक्षेत्र का कैसा आकार स्वरूप होता है ? गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है / मुरज के ऊपरी भाग जैसा समतल होता है / सुषम-सुषमा के वर्णन में जो कथन किया गया है, वैसा ही यहाँ जानना चाहिए। उससे इतना अन्तर है–उस काल के मनुष्य चार हजार धनुष की अवगाहना वाले होते हैं, उनके शरीर की ऊँचाई दो कोस होती है। उनकी पसलियों की हड्डियां एक सौ अट्ठाईस होती हैं। दो दिन बीतने पर उन्हें भोजन की इच्छा होती है। वे अपने यौगलिक बच्चों की चौसठ दिन तक सार-सम्हाल करते हैं-पालन-पोषण करते हैं, सुरक्षा करते हैं / उनकी श्रायु दो पल्योपम की होती है। शेष सब उसी प्रकार है, जैसा पहले वर्णन आया है। उस समय चार प्रकार के मनुष्य होते हैं--१. एक-प्रवरश्रेष्ठ, 2. प्रचुरजंघ-पुष्ट जंघा वाले, 3. कुसुम-पुष्प के सदृश सुकुमार, 4. सुशमन - अत्यन्त शान्त / अवसपिरणी : सुषमा-दुःषमा 34. तीसे णं समाए तिहि सागरोवमकोडाकोडोहि काले वीइक्कते अणतेहि वण्णपज्जवेहि, (अणतेहिं गंधपज्जवेहि, अणंतेहिं रसपज्जवेहि, अणतेहिं फासपज्जवेहि, अणंतेहि संघयणपज्जवेहि, अणंतेहि संठाणपज्जवेहि, अणंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहि, अणंतेहि पाउपज्जवेहि, अणंतेहि गुरुलहुपज्जवेहि, अणंतेहि अगुरु-लहु-पज्जवेहि, अणंतेहिं उट्ठाणकम्मबलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमपज्जवेहि,) अणंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणो 2, एत्थ णं सुसमदुस्समाणामं समा पडिवज्जिसु / समणाउसो ! सा णं समा तिहा विभज्जइ तंजहा—पढमे तिभाए 1, मज्झिमे तिभाए 2, पच्छिमे तिभाए। जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे, इमोसे प्रोसप्पिणीए सुसमदुस्समाए समाए पढममज्झिमेसु तिभाएसु भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे ? पुच्छा। गोयमा ! बहसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, सो चेव गमो अन्वो णाणत्तं दो घणुसहस्साई उड्ड उच्चत्तेणं / तेसि च मणुप्राणं चउसटिपिटुकरंडगा, चउत्थभत्तस्स आहारत्थे समुप्पज्जइ, ठिई पलिनोवम, एगूणासीइं राइंदिआई सारक्खंति, संगोवेंति, (कासित्ता, छोइत्ता, जंभाइत्ता, अक्किट्ठा, अव्वहिआ, अपरिआविआ कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववजंति) देवलोगपरिग्गहिआ णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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