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________________ द्वितीय बक्षस्कार] [51 संगोवेंति; संगोवेत्ता, कासित्ता, छोइत्ता, जंभाइत्ता, अक्किट्ठा, अश्वहिआ, अपरिप्राविआ कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववज्जंति, देवलोअपरिग्गहा णं ते मणुप्रा पण्णत्ता। (5) भगवन् ! वे मनुष्य अपना आयुष्य पूरा कर--मृत्यु प्राप्त कर कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जब उनका प्रायुष्य छह मास बाकी रहता है, वे युगल—एक बच्चा, एक बच्ची उत्पन्न करते हैं। उनपचास दिन-रात उनकी सार-सम्हाल करते हैं—पालन-पोषण करते हैं, संगोपनसंरक्षण करते हैं / यों पालन तथा संगोपन कर वे खाँस कर, छींक कर, जम्हाई लेकर शारीरिक कष्ट, व्यथा तथा परिताप का अनुभव नहीं करते हुए काल-धर्म को प्राप्त होकर-मर कर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं / उन मनुष्यों का जन्म स्वर्ग में ही होता है, अन्यत्र नहीं / (6) तीसे णं भंते ! समाए भारहे वासे कइविहा मणुस्सा अणुसज्जित्था ? गोयमा ! छविहा पण्णत्ता, तंजहा-पम्हगंधा 1, मित्रगंधा 2, अममा 3, तेअतली 4, सहा 5, सणिचारी 6 / (6) भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र में कितने प्रकार के मनुष्य होते हैं ? गौतम ! छह प्रकार के मनुष्य कहे गये हैं- 1. पद्मगन्ध-कमल के समान गंध वाले, 2. मृगगंध-कस्तुरी सदृश गंध वाले, 3. अमम-ममत्वरहित, 4. तेजस्वी, 5. सह–सहनशील तथा 6. शनैश्चारी-उत्सुकता न होने से धीरे-धीरे चलने वाले / विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में यौगलिकों की आयु जघन्य—कम से कम कुछ कम तीन पल्योपम तथा उत्कृष्ट अधिक से अधिक तीन पल्योपम जो कही गई है, वहाँ यह ज्ञातव्य है कि जघन्य कुछ कम तीन पल्योपम आयुष्य-परिमाण यौगलिक स्त्रियों से सम्बद्ध है। यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यौगलिक के आगे के भव का आयुष्य-बन्ध उनकी मृत्यु से छः मास पूर्व होता है, जब वे युगल को जन्म देते हैं / अवसर्पिणी : सुषमा प्रारक 33. तीसे णं समाए चहि सागरोवम-कोडाकोडोहिं काले वीइक्कते अणंहि वण्णपज्जवेहि, अणहि गंधपज्जवेहि, अणंतेहिं रसपज्जवेहि, अणंतेहिं फासपज्जवेहि, अणतेहि संघयणपज्जवेहि, अर्णतेहि संठाणपज्जवेहि, अणंतेहि उच्चतपज्जवेहि, अणंतेहिं आउपज्जवेहि, अणंतेहि गुरुलहपज्जवेहि, अणतेहि अगुरुलहपज्जवेहि, अणंतेहि उट्ठाणकम्मबलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमपज्जवेहि, अणंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे परिहायमाणे एत्थ णं सुसमा णामं समाकाले पडिज्जिसु समणाउसो! जंबूद्दीवे णं भंते ! दोवे इमीसे प्रोसप्पिणीए सुसमाए समाए उत्तम-कट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे होत्था ? / ___ गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा तं चेव जं सुसमसुसमाए पुव्ववण्णिअं, णवरं णाणत्तं चउधणुसहस्समूसिआ, एगे अट्ठावीसे पिट्टकरंडकसए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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