SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय वक्षस्कार] [53 तीसे णं भंते ! समाए पच्छिमे तिभाए भरहस्स वासस्स केरिसए पायारभावपडोयारे होत्था ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा जाव' मणोहि उवसोभिए, तंजहा-कित्तमेहि चेव प्रकित्तिमेहि चेव / तीसे णं भंते ! समाए पच्छिमे तिभागे भरहे वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपडोपारे होत्था ? गोयमा ! तेसि मणुाणं छविहे संधयणे, छविहे संठाणे, बहूणि धणुसयाणि उड्ढं उच्चत्तेणं, जहणणं संखिज्जाणि वासाणि, उक्कोसेणं असंखिज्जाणि वासाणि आउअं पालंति, पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी, अप्पेगइया तिरिअगामी, अप्पेगइया मणुस्सगामी, अप्पेगइया देवगामी, अप्पेगइया सिझंति, (बुझंति, मुच्चंति, परिणिब्वायंति,) सव्वदुक्खाणमंतं करेंति / [34] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय का उस प्रारक का-द्वितीय प्रारक का तीन सागरोपम कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाता है, तब अवसर्पिणी-काल का सुषम-दुःषमा नामक तृतीय प्रारक प्रारम्भ होता है। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय, (अनन्त गंध-पर्याय, अनन्त रस-पर्याय, अनन्त स्पर्श-पर्याय, अनन्त संहनन-पर्याय, अनन्त संस्थान-पर्याय, अनन्त उच्चत्व-पर्याय, अनन्त प्रायू-पर्याय, अनन्त गुरु-लघु-पर्याय, अनन्त अगुरु-लघु-पर्याय, अनन्त उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषकार-पराक्रमपर्याय)-इनका अनन्त गुण परिहानि-क्रम से ह्रास होता जाता है / / उस आरक को तीन भागों में विभक्त किया गया है-१. प्रथम त्रिभाग, 2. मध्यम विभाग, 3. पश्चिम त्रिभाग–अंतिम त्रिभाग। भगवन् ! जम्बूद्वीप में इस अवसर्पिणी के सुषम-दुषमा प्रारक के प्रथम तथा मध्यम त्रिभाग का प्राकार--स्वरूप कैसा है ? आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है। उसका पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए / अन्तर इतना है. उस समय के मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई दो हजार धनूष होती है। उनकी पसलियों की हड़ियाँ चौसठ होती हैं / एक दिन के बाद उन में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। उनका प्रायुष्य एक पल्योपम का होता है, 79 रात-दिन अपने यौगलिक शिशुओं की वे सार-सम्हाल-पालन पोषण करते हैं, सुरक्षा करते हैं / (वे खाँसकर, छींककर, जम्हाई लेकर शारीरिक कष्ट, व्यथा तथा परिताप अनुभव नहीं करते हुए काल-धर्म को प्राप्त होकर-मर कर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं ) / उन मनुष्यों का जन्म स्वर्ग में ही होता है। भगवन् ! उस ग्रारक के पश्चिम विभाग में आखिरी तीसरे हिस्से में भरतक्षेत्र का आकार-स्वरूप कैसा होता है ? गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय होता है / वह मुरज के ऊपरी भाग जैसा समतल होता है / वह यावत् कृत्रिम एवं अकृत्रिम मणियों से उपशोभित होता है / भगवन् ! उस पारक के अंतिम तीसरे भाग में भरतक्षेत्र में मनुष्यों का प्राकार-स्वरूप कैसा होता है ? 1. देखें सूत्र संख्या 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy