SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय वक्षस्कार] अयसुमहग्घदूसरयणसुसंवुडे, सुइमालायण्णगविलेवणे, प्राविद्धमणिसुवण्णे कप्पियहारहारतिसरियपालंबपलबमाणकडिसुत्तमुकयसोहे, पिणद्धगेविज्जगअंगुलिज्जगललिअंगयललियकयाभरणे, णाणामणिकडगतुडियर्थभियभुए, अहियसस्सिरीए, कुण्डल उज्जोइयाणणे, मउडदित्तसिरए, हारोत्थयसुकयवच्छे, पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिज्जे, मुद्दियापिंगलंगुलीए, णाणामणिकणगविमलमहरिह-णिउणोयवियमिसिमिसिंत-विरइय-सुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्थ-श्राविद्धवीरबलए / कि वहुणा ? कप्परुक्खए चेव प्रलंकिअविभूसिए, रिदे सकोरंट-(मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं,) चउचामरवालवीइयंगे, मंगलजयजयसद्दकयालोए, अणेगगणणायगदंडणायग - (ईसरतलवरमाडंबिअकोडुबिअमंतिमहामंतिगणगदोवारिअप्रमच्चचेडपीढमद्दणगरणिगमसे ट्ठिसेणावइसत्यवाह-) दूयसंधिवालसद्धि संपरिघुडे, धवल-महामेहणिग्गए इव (गहगण-दिप्पंतरिक्ख-तारागणाण मज्झे) ससिध्ध पियदसणे, परवई धवपुष्फ-गंध-मल्ल-हत्थगए मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव पाउहघरसाला, जेणेव चक्करयणे, तेणामेव पहारेत्थ गमणाए। [55] तत्पश्चात् राजा भरत जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया / उस ओर आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। वह स्नानघर मुक्ताजालयुक्त-मोतियों की अनेकानेक लड़ियों से सजे हुए झरोखों के कारण बड़ा सुन्दर था। उसका प्रांगण विभिन्न मणियों तथा रत्नों से खचित था। उसमें रमणीय स्नान-मंडप था। स्नान-मंडप में अनेक प्रकार से चित्रात्मक रूप में जड़ी गई मणियों एवौं रत्नों से सुशोभित स्नान-पीठ था। राजा सुखपूर्वक उस पर बैठा / राजा ने शुभोदक-न अधिक उष्ण, न अधिक शीतले, सुखप्रद जल, गन्धोदक-चन्दन आदि सुगंधित पदार्थों से मिश्रित जल, पुष्पोदक-पुष्प मिश्रित जल एवं शुद्ध जल द्वारा परिपूर्ण, कल्याणकारी, उत्तम स्नानविधि से स्नान किया। स्नान के अनन्तर राजा ने दृष्टिदोष, नजर आदि के निवारण हेतु रक्षाबन्धन आदि के सैकड़ों विधि-विधान संपादित किये। तत्पश्चात रोएँदार, सकोमल काषायित हरीतकी आमलक आदि कसैली वनौषधियों से रंगे हुए अथवा काषाय-लाल या गेरुए रंग के वस्त्र से शरीर पोंछा। सरस-रसमय–आर्द्र, सुगन्धित गोशीर्ष चन्दन का देह पर लेप किया। अहत-अदूषितचूहों आदि द्वारा नहीं कुतरे हुए बहुमूल्य दूष्यरत्न-उत्तम या प्रधान वस्त्र भली भाँति पहने / पवित्र माला धारण की। केसर आदि का विलेपन किया। मणियों से जड़े सोने के आभूषण पहने / हार--- अठारह लड़ों के हार, अर्धहार–नौ लड़ों के हार तथा तीन लड़ों के हार और लम्बे, लटकते कटि सूत्र-करधनी या कंदोरे से अपने को सुशोभित किया। गले के आभरण धारण किये। अंगुलियों में अंगूठियाँ पहनी / इस प्रकार सुन्दर अंगों को सुन्दर आभूषणों से विभूषित किया / नाना मणिमय कंकणों तथा ऋटितों-तोड़ों---भुजबंधों द्वारा भुजाओं को स्तम्भित किया-कसा / यों राजा की शोभा और अधिक बढ़ गई / कुडलों से मुख उद्योतित था-चमक रहा था / मुकुट से मस्तक दीप्तदेदीप्यमान था। हारों से ढका हुआ उसका वक्षःस्थल सुन्दर प्रतीत हो रहा था। राजा ने एक लम्बे, लटकते हुए वस्त्र को उत्तरीय (दुपट्ट) के रूप में धारण किया। मुद्रिकानों सोने की अंगूठियों के कारण राजा की अंगुलियां पीली लग रही थीं। सुयोग्य शिल्पियों द्वारा नानाविध मणि, स्वर्ण, रत्न-- इनके योग से सुरचित विमल-उज्ज्वल, महार्ह-बड़े लोगों द्वारा धारण करने योग्य, सुश्लिष्टसुन्दर जोड़ युक्त, विशिष्ट–उत्कृष्ट, प्रशस्त-प्रशंसनीय प्राकृतियुक्त सुन्दर वीरवलय-विजय कंकण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy