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________________ चतुर्थ वक्षस्कार [227 [106] भगवन् ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर हरिस्सह कूट नामक कूट कहाँ बतलाया गया है? गौतम ! पूर्णभद्रकट के उत्तर में, नीलवान् पर्वत के दक्षिण में हरिस्सहकट नामक कूट बतलाया गया है। वह एक हजार योजन ऊँचा है। उसकी लम्बाई, चौड़ाई आदि सब यमक पर्वत के सदृश है। मन्दर पर्वत के उत्तर में असंख्य तिर्यक् द्वीप-समुद्रों को लांघकर अन्य जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तर में बारह हजार योजन जाने पर हरिस्सह कूट के अधिष्ठायक हरिस्सह देव की हरिस्सहा नामक राजधानी आती है / वह 84000 योजन लम्बी-चौड़ी है। उसकी परिधि 265636 योजन है / वह ऋद्धिमय तथा द्युतिमय है। उसका अवशेष वर्णन चमरेन्द्र की चमरचञ्चा नामक राजधानी के समान समझना चाहिए। भगवन् ! माल्यवान् वक्षस्कारपर्वत-इस नाम से क्यों पुकारा जाता है ? गौतम ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर जहां तहाँ बहुत से सरिकाओं, नवमालिकाओं, मगदन्तिकाओं आदि तत्तत् पुष्पलताओं के गुल्म-झुरमुट हैं। उन लताओं पर पंचरंगे फूल खिलते हैं / वे लताएँ पवन द्वारा प्रकम्पित अपनी टहनियों के अग्रभाग से मुक्त हुए पुष्पों द्वारा माल्यवान् वक्षस्कारपर्वत के अत्यन्त समतल एवं सुन्दर भूमिभाग को सुशोभित, सुसज्जित करती हैं / वहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्ययुक्त माल्यवान् नामक देव निवास करता है, गौतम ! इस कारण वह माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत कहा जाता है / अथवा उसका यह नाम (धव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं) नित्य है / कच्छ विजय 110. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजए पग्णते ? गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं, णीलवंतस्स वासहरपब्वयस्स दक्खिणेणं, चित्तकूडस्स वक्खारपव्ययस्स पच्चस्थिमेणं, मालवंतस्स वखारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे 2 महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाडीण-पडीणवित्थिणे पलिअंकसंठाणसंठिए, गंगासिंधूहि महाणईहिं वेयःण य पव्वएणं छन्भागपविभत्ते, सोलस जोअणसहस्साइं पंच य बाणउए जोधणसए दोणि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं, दो जोनणसहस्साई दोणि प्र तेरसुत्तरे जोअणसए किचि विसेसूणे विक्खंभेणंति / / कच्छस्स णं विजयस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वेअद्ध णाम पव्वए पण्णत्ते, जे णं कच्छ विजयं दुहा विभयमाणे 2 चिट्ठइ, तं जहा-दाहिणद्धकच्छं उत्तरद्धकच्छं चेति / / ___ कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणद्वकच्छे णाम विजए पणते ? गोयमा ! वेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणणं, सोपाए महाणईए उत्तरेणं, चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चस्थिमेणं, मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणद्धकच्छे णामं विजए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाईणपडीणविस्थिण्णे, अट्ठजोप्रणसहस्साई दोणि अ एगसत्तरे जोअणसए एक्कं च एगूणवीसइभागं पायामेणं, दो जोअणसहस्साई दोण्णि प्र तेरसुत्तरे जोअणसए किंचिविसेसूणे विक्खंभेणं, पलिअंकसंठाणसंठिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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