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________________ तृतीय वक्षस्कार [141 तए णं से भरहे राया तेसिं आवाडचिलायाणं अग्गाइं वराई रयणाई पडिच्छति 2 ता ते भावाडचिलाए एवं वयासी-गच्छह णं भो! तुम्भे ममं बाहुच्छायापरिग्गहिया णिब्भया णिरुध्विग्गा सुहंसुहेणं परिवसह, णस्थि भे कत्तो वि भयमस्थित्ति कटु सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ। ___तए णं से भरहे राया सुसेणं सेणावई सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी—गच्छाहि णं भो देवाणुप्पिा ! दोच्चं पि सिंधुए महाणईए पच्चत्थिमं णिक्खुडं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणि खुडाणि अ ओअवेहि 2 ता अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छाहि 2 ता मम एप्रमाणत्तिन खिप्पामेव पच्चप्पिणाहि जहा दाहिणिल्लस्स प्रोयवणं तहा सव्वं भाणिअन्वं जाव पच्चणुभवमाणा विहरति / [77] जब राजा भरत को इस रूप में रहते हुए सात दिन रात व्यतीत हो गये तो उसके मन में ऐसा विचार, भाव, संकल्प उत्पन्न हुआ—वह सोचने लगा-अप्रार्थित-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु का प्रार्थी-चाहने वाला, दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाला (पुण्य चतुर्दशी हीन-असम्पूर्ण थी, घटिकाओं में अमावस्या आ गई थी, उस अशुभ दिन में जन्मा हुअा अभागा, लज्जा एवं शोभा से परिवजित) कौन ऐसा है, जो मेरी दिव्य ऋद्धि तथा दिव्य द्युति की विद्यमानता में भी मेरी सेना पर युग. मूसल एवं मुष्टिका प्रमाण जलधारा द्वारा सात दिन-रात हुए, भारी वर्षा करता जा रहा है / राजा भरत के मन में ऐसा विचार, भाव, संकल्प उत्पन्न हुआ जानकर सोलह हजार देव--- चोदह रत्नों के रक्षक चौदह हजार देव तथा दो हजार राजा भरत के अंगरक्षक देव-युद्ध हेतु सन्नद्ध हो गये / उन्होंने लोहे के कवच अपने शरीर पर कस लिये, शस्त्रास्त्र धारण किये, जहाँ मेघमुख नागकुमार देव थे, वहाँ आये / आकर उनसे बोले–मृत्यु को चाहने वाले, (दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाले, पुण्य चतुर्दशी हीन-असम्पूर्ण थी, घटिकाओं में अमावस्या आ गई थी, उस अशुभ दिन में जन्म लेने वाले अभागे, लज्जा तथा शोभा से परिजित) मेघमुख नागकुमार देवो! क्या तुम चातुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत को नहीं जानते ? वह महा ऋद्धिशाली है / (परम द्युतिमान् तथा परम सौख्यशालीभाग्यशाली है / उसे न कोई देव-वैमानिक देवता, न कोई दानव-भवनवासी देवता, न कोई किन्नर, न कोई किंपुरुष, न कोई महोरग तथा न कोई गन्धर्व ही रोक सकता है, न बाधा उत्पन्न कर सकता है / न उसे शस्त्र प्रयोग द्वारा, न अग्नि-प्रयोग द्वारा तथा न मन्त्र-प्रयोग द्वारा ही उपद्रत किया जा सकता है, रोका जा सकता है।) फिर भी तुम राजा भरत की सेना पर युग, मूसल तथा मुष्टिकाप्रमाण जल-धाराओं द्वारा सात दिन-रात हुए भीषण वर्षा कर रहे हो / तुम्हारा यह कार्य अनुचित है-तमने यह बिना सोचे समझे किया है, किन्तु बीती बात पर अब क्या अधिक्षेप कर-उपालभ द / तुम अब शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ, अन्यथा इस जीवन से अग्रिम जीवन देखने को तैयार हो जायोमृत्यु की तैयारी करो। __ जब उन देवताओं ने मेघमुख नागकुमार देवों को इस प्रकार कहा तो वे भीत, त्रस्त, व्यथित एवं उद्विग्न हो गये, बहुत डर गये / उन्होंने बादलों की घटाएँ समेट लीं। समेट कर, जहाँ आपात किरात थे, वहाँ आये और बोले- देवानुप्रियो ! राजा भरत महा ऋद्धिशाली (परम द्युतिमान् तथा परम सौभाग्यशाली है / उसे न कोई देव, न कोई दानव, न कोई किन्नर, न कोई किंपुरुष, न कोई महोरग तथा न कोई गन्धर्व ही रोक सकता है, न बाधा उत्पन्न कर सकता है / न उसे शस्त्र प्रयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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