________________ पञ्चम वक्षस्कार] [287 तथा सौधर्मकल्पवासी अन्य बहुत से देवों तथा देवियों का प्राधिपत्य, पौरोवृत्त्य-अग्रेसरता, स्वामित्व, भर्तृत्व-प्रभुत्व, महत्तरत्व-अधिनायकत्व, प्राजेश्वरत्व-सैनापत्य-जिसे आज्ञा देने का सर्वाधिकार हो, ऐसा सैनापत्य-सेनापतित्व करते हुए, इन सबका पालन करते हुए, नत्य, गीत, कलाकौशल के साथ बजाये जाते वीणा, झांझ, ढोल एवं मृदंग की बादल जैसी गंभीर तथा मधुर ध्वनि के बीच दिव्य भोगों का आनन्द ले रहा था। सहसा देवेन्द्र, देवराज शक का आसन चलित होता है, काँपता है / शक (देवेन्द्र, देवराज) जब अपने पासन को चलित देखता है तो वह अवधि-ज्ञान का प्रयोग करता है। अवधिज्ञान द्वारा भगवान् तीर्थंकर को देखता है। वह हृष्ट तथा परितुष्ट होता है। अपने मन में प्रानन्द एवं प्रीति - प्रसन्नता का अनुभव करता है / सौम्य मनोभाव और हर्षातिरेक से उसका हृदय खिल उठता है / मेघ द्वारा बरसाई जाती जलधारा से आहत कदम्ब के पुष्पों की ज्यों उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं-वह रोमांचित हो उठता है / उत्तम कमल के समान उसका मुख तथा नेत्र विकसित हो उठते हैं / हर्षातिरेकजनित स्फूर्तावेगवश उसके हाथों के उत्तम कटक–कड़े, श्रुटित-बाहुरक्षिका-भुजाओं को सुस्थिर बनाये र तु परिधीयमान-धारण की गई आभरणात्मक पद्रिका, केयूर-भुजबन्ध एवं मुकुट सहसा कम्पित हो उठते हैं-हिलने लगते हैं। उसके कानों में कुण्डल शोभा पाते हैं / उसका वक्षःस्थल हारों से सुशोभित होता है / उसके गले में लम्बी माला लटकती है, आभूषण झूलते हैं / (इस प्रकार सुसज्जित) देवराज शक्र आदरपूर्वक शीघ्र सिंहासन से उठता है। पादपीठ-पैर रखने के पीढ़े पर अपने पैर रखकर नीचे उतरता है। नीचे उतरकर वैडूर्य-नीलम, श्रेष्ठ रिष्ठ तथा अंजन नामक रत्नों से निपुणतापूर्वक कलात्मक रूप में निर्मित, देदीप्यमान, मणि-मण्डित पादुकाएँ पैरों से उतारता है / पादुकाएँ उतार कर अखण्ड वस्त्र का उत्तरासंग करता है। हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधता है, जिस ओर तीर्थंकर थे उस दिशा की ओर सात, पाठ कदम आगे जाता है। फिर अपने बायें घुटने को आकुचित करता है-सिकोड़ता है, दाहिने घुटने को भूमि पर टिकाता है, तीन बार अपना मस्तक भूमि से लगाता है। फिर कुछ ऊँचा उठता है, कड़े तथा बाहुरक्षिका से सुस्थिर भुजात्रों को उठाता है, हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधे (जुड़े हुए) हाथों को मस्तक के चारों ओर घुमाता है और कहता है अर्हत्-इन्द्र आदि द्वारा पूजित अथवा कर्म-शत्रुओं के नाशक, भगवान्-आध्यात्मिक ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न, आदिकर-अपने युग में धर्म के प्राद्य प्रवर्तक, तीर्थकर--साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म-तीर्थ प्रवर्तक, स्वयंसंबुद्ध-स्वयं बोधप्राप्त, पुरुषोत्तम-पुरुषों में उत्तम, पुरुषसिंह--- आत्मशौर्य में पुरुषों में सिंह सदृश, पुरुषवरपुण्डरीक - सर्व प्रकार की मलिनता से रहित होने के कारण पुरुषों में श्रेष्ठ, श्वेत कमल की तरह निर्मल अथवा मनुष्यों में रहते हुए भी कमल की तरह निर्लेप, पुरुषवरगन्धहस्ती-उत्तम गन्धहस्ती के सदश-जिस प्रकार गन्धहस्ती के पहुँचते ही सामान्य हाथी भाग जाते हैं, उसी प्रकार किसी क्षेत्र में जिनके प्रवेश करते ही दुभिक्ष, महामारी आदि अनिष्ट दूर हो जाते हैं अर्थात् अतिशय तथा प्रभावपूर्ण उत्तम व्यक्तित्व के धनी, लोकोत्तम-लोक के सभी प्राणियों में उत्तम, लोकनाथ--लोक के सभी भव्य प्राणियों के स्वामी- उन्हें सम्यग्दर्शन तथा सन्मार्ग प्राप्त कराकर उनका योग-क्षेम' साधने वाले, लोकहितकर-लोक का कल्याण करने वाले, लोकप्रदीप१. अप्राप्तस्य प्रापणं योग:-जो प्राप्त नहीं है, उसका प्राप्त होना योग कहा जाता है। प्राप्तस्य रक्षण क्षेम:-- प्राप्त की रक्षा करना क्षेम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org