________________ 288] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र ज्ञान रूपी दीपक द्वारा लोक का अज्ञान दूर करने वाले अथवा लोकप्रतीप-लोक-प्रवाह के प्रतिकूलगामी-अध्यात्मपथ पर गतिशील, लोकप्रद्योतकर-लोक-अलोक, जीव-अजीव आदि का स्वरूप प्रकाशित करनेवाले अथवा लोक में धर्म का उद्योत फैलाने वाले, अभयदायक---सभी प्राणियों के लिए अभयप्रद–सम्पूर्णत: अहिंसक होने के कारण किसी के लिए भय उत्पन्न नहीं करने वाले, चक्षुदायकआन्तरिक नेत्र सद्ज्ञान देनेवाले, मार्गदायक --सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूप साधनापथ के उद्बोधक, शरणदायक—जिज्ञासु तथा मुमुक्ष जनों के लिए प्राश्रयभूत, जीवनदायकप्राध्यात्मिक जीवन के संबल, बोधिदायक-सम्यक बोध देनेवाले, धर्मदायक-सम्यक् चारित्ररूप धर्म के दाता, धर्मदेशक-धर्मदेशना देनेवाले, धर्मनायक, धर्मसारथि-धर्मरूपी रथ के चालक, धर्मवर चातुरन्त-चक्रवर्ती-चार अन्त-सीमा युक्त पृथ्वी के अधिपति के समान धार्मिक जगत् के चक्रवर्ती, दीप-दीपक-सदृश समस्त वस्तुओं के प्रकाशक अथवा द्वीप-संसार-समुद्र में डूबते हुए जीवों के लिए द्वीप के समान बचाव के आधार, त्राण-कर्म-कर्थित भव्य प्राणियों के रक्षक, शरण आश्रय, गति एवं प्रतिष्ठास्वरूप, प्रतिघात, बाधा या आवरण रहित उत्तम ज्ञान, दर्शन के धारक, व्यावृत्तछद्माअज्ञान प्रादि प्रावरण रूप छद्म से अतीत, जिन-राग. द्वष प्रादि के विजेता. ज्ञायक-राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक-राग आदि को जीतने का पथ बताने वाले, तीर्णसंसार-सागर को पार कर जाने वाले, तारक-दूसरों को संसार-सागर से पार उतारने वाले बोद्धव्य का ज्ञान प्राप्त किये हुए, बोधक-औरों के लिए बोधप्रद, मुक्त कर्मबन्धन से छूटे हुए, मोचक-कर्मबन्धन से छूटने का मार्ग बतानेवाले, वैसी प्रेरणा देनेवाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिवकल्याणमय, अचल-स्थिर, अरुक–निरुपद्रव, अनन्त-अन्तरहित, अक्षय-क्षयरहित, अबाध-- बाधारहित, अपुनरावृत्ति--जहाँ से फिर जन्म-मरण रूप संसार में आगम नहीं होता, ऐसी सिद्धिगति-सिद्धावस्था को प्राप्त, भयातीत जिनेश्वरों को नमस्कार हो / आदिकर, सिद्धावस्था पाने के इच्छुक भगवन् तीर्थकर को नमस्कार हो / यहाँ स्थित मैं वहाँ-~-अपने जन्मस्थान में स्थित भगवान् तीर्थंकर को वन्दन करता हूँ। वहाँ स्थित भगवान् यहाँ स्थित मुझको देखें / ऐसा कहकर वह भगवान् को वन्दन करता है, नमन करता है / वन्दन-नमन कर वह पूर्व की ओर मुंह करके उत्तम सिंहासन पर बैठ जाता है / तब देवेन्द्र, देवराज शक्र के मन में ऐसा संकल्प, भाव उत्पन्न होता है-जम्बूद्वीप में भगवान् तीर्थकर उत्पन्न हुए हैं। भतकाल में हए, वर्तमान काल में विद्यमान, भविष्य में होने वाले देवेन्द्रों, देवराजों शकों का यह परंपरागत प्राचार है कि वे तीर्थंकरों का जन्म-महोत्सव मना इसलिए मैं भी जाऊँ, भगवान् तीर्थकर का जन्मोत्सव समायोजित करू / देवराज शक्र ऐसा विचार करता है, निश्चय करता है। ऐसा निश्चय कर वह अपनी पदातिसेना के अधिपति हरिनिगमेषी' नामक देव को बुलाता है / बुलाकर उससे कहता है-'देवानुप्रिय ! 1. हरेः-इन्द्रस्य, निगमम् आदेशमिच्छतीति हरिनिगमेषी तम्, अथवा इन्द्रस्य नैगमेषी नामा देव:--तम् / (इन्द्र के निगम-आदेश को चाहने वाला अथवा इन्द्र का नगमेषी नामक देव) ---जम्बूद्वीप, शान्तिचन्द्रीयावत्ति पचन्द्रामावत्ति, पत्र 397 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org