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________________ प्रथम वक्षस्कार [17 समतल है, बहुविध पंचरंगी मणियों से उपशोभित है। वहाँ स्थान-स्थान पर बावड़ियां एवं सरोवर हैं। वहाँ अनेक वानव्यन्तर देव, देवियां निवास करते हैं, पूर्व-प्राचीर्ण पुण्यों का फलभोग करते हैं / 18. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे वेअड्डपब्वए कइ कूडा पण्णत्ता? गोयमा ! णव कूडा पण्णता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे 1. दाहिणभरहकूडे 2. खंडप्पवायगुहाकूडे 3. मणिभद्दकूडे 4. वेअडकूडे 5. पुण्णभद्दकूडे 6. तिमिसगुहाकूडे 7. उत्तरड्डभरहकूडे 8. वेसमणकूडे है। [18] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत के कितने कूट—शिखर या चोटियाँ हैं ? गौतम ! वैताढ्य पर्वत के नौ कूट हैं / वे इस प्रकार हैं--- 1. सिद्धायतनकूट, 2. दक्षिणार्धभरतकूट, 3. खण्डप्रपातगुहाकूट, 4. मणिभद्रकूट, 5. वैताढ्यकूट, 6. पूर्णभद्रकूट, 7. तमिस्रगुहाकूट, 8. उत्तरार्धभरतकूट, 6. वैश्रमणकूट / सिद्धायतनकट 16. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेअट्टपव्वए सिद्धाययणकडे णामं कूडे पण्णते ? गोयमा ! पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं, दाहिणभरहकूडस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दोवे दीवे भारहे वासे वेअड्डे पश्चए सिद्धाययणकूड़े णामं कूडे पण्णत्ते-छ सक्कोसाइं जोषणाई उड्ड उच्चत्तेणं, मूले छ सक्कोसाई विक्खंभेणं, मज्झे देसूणाई पंच जोअणाई विक्खंभेणं, उरि साइरेगाई तिणि जोअणाई विक्खंभेणं, मूले देसूणाई बावीसं जोअणाई परिक्खेवेणं, मज्झे देसूणाई पण्णरस जोअणाई परिक्खेवेणं, उरि साइरेगाई णव जोअणाई परिक्खेवेणं, मूले वित्थिण्णे, मझे संखित्ते, उप्पि तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए, सव्वरयणामए, अच्छ, सण्हे जाव' पडिरूवे / से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिखिते, पमाणं वष्णो दोण्हंपि, सिद्धाययणकूडस्स णं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव' याणमंतरा देवा य जाव' विहरति / तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूर्ण कोसं उड्ड उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसनिविट्ठ, अम्भुग्गयसुकयवइरवेइआ-तोरण-वररइअसालभंजिअ-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-लट्ठ-संठिन - पसत्थ - वेरुलिअ - विमलखंभे, णाणामणिरयणखचिअउज्जलबहुसमसुविभत्तभूमिभागे, ईहामिग-उसभ-तुरग-णर-मगरविहग-वालग-किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुजर-वणलय (णागलय-असोअलय-चंपगलय-चूयलय-वासंतियलय-अइमुत्तयलय-कुदलय-सामलय-) पउमलयभत्तिचित्ते, कंचणमणिरयण-थूभियाए, णाणाविहपंच० 1. देखें सूत्र-संख्या 4 , 2. देखें सूत्र-संख्या 6 3. देखें सूत्र-संख्या 12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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