________________ पञ्चम वक्षस्कार [275 करती हैं / समस्त जगत् के लिए मंगलमय, नेत्रस्वरूप-सकल जगद्-भाव-दर्शक, मूर्त--चक्षुर्माह्य, समस्त जगत् के प्राणियों के लिए वात्सल्यमय, हितप्रद सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप मार्ग उपदिष्ट करने वाली, विभु–सर्वव्यापक-समस्त श्रोतृवृन्द के हृदयों में तत्तद्भाषानुपरिणत हो अपने तात्पर्य का समावेश करने में समर्थ वाणी की ऋद्धि-वाग्वैभव से युक्त, जिन-राग-द्वेष-विजेता, ज्ञानी--- सातिशय ज्ञान युक्त, नायक-धर्मवर चक्रवर्ती-उत्तम धर्म-चक्र का प्रवर्तन करनेवाले, बुद्ध-ज्ञाततत्त्व, बोधक-दूसरों को तत्त्व-बोध देनेवाले, समस्त लोक के नाथ- समस्त प्राणिवर्ग में ज्ञान-बीज का आधान एवं संरक्षण कर उनके योग-क्षेमकारी, निर्मम-ममता-रहित, उत्तम कुल, क्षत्रिय-जाति में उद्भूत, लोकोत्तम-लोक में सर्वश्रेष्ठ तीर्थकर भगवान् की आप जननी हैं। आप धन्य, पुण्य एवं कृतार्थ कृतकृत्य हैं / देवानुप्रिये ! . अधोलोकनिवासिनी हम आठ प्रमुख दिशाकुमारिकाएं भगवान् तीर्थकर का जन्ममहोत्सव मनायेंगी अतः आप भयभीत मत होना। यों कहकर वे उत्तर-पूर्व दिशाभाग में.-ईशान-कोण में जाती हैं। वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्म-प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालती हैं। आत्म-प्रदेशों को बाहर निकालकर उन्हें संख्यात योजन तक दण्डाकार परिणत करती हैं। (वन-हीरे, वैडूर्य-नीलम, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, ज्योतिरस, अंजन–एतत्संज्ञक रत्नों के, जातरूपस्वर्ण के अंक, स्फटिक तथा रिट रत्नों के पहले बादर-स्थूल पुद्गल छोड़ती हैं, सूक्ष्म पुद्गल ग्रहण करती हैं। फिर दूसरी बार बैंक्रिय समुद्घात करती हैं, संवर्तक वायु की विकुर्वणा करती हैं। संवर्तक वायु की विकुर्वणा कर उस शिव-कल्याण कर, मृदुल-भूमि पर धीरे-धीरे बहते, अनुद्ध तअनूज़गामी, भूमितल को निर्मल, स्वच्छ करने वाले, मनोहर-मन को रंजित करने वाले, सब ऋतुओं में विकासमान पुष्पों की सुगन्ध से सुवासित, सुगन्ध को पुजीभूत रूप में दूर क संप्रसत करने वाले, तिर्यक्-तिरछे बहते हुए वायु द्वारा भगवान् तीर्थकर के योजन परिमित परिमण्डल को भूभाग को-घेरे को चारों ओर से सम्माजित करती हैं। जैसे एक तरुण, बलिष्ठ-शक्तिशाली, युगवान्उत्तम युग में सुषम दुःषमादि काल में उत्पन्न, युवा-यौवनयुक्त, अल्पातंक-निरातंक-नीरोग, स्थिराग्रहस्त-गृहीत कार्य करने में जिसका अग्रहस्त-हाथ का आगे का भाग काँपता नहीं, सुस्थिर रहता हो, दृढपाणिपाद-सुदृढ़ हाथ-पैरयुक्त, पृष्ठान्तोरुपरिणत-जिसकी पीठ, पार्श्व तथा जंघाएँ आदि अंग परिणत हों- परिनिष्ठित हों, जो अहीनांग हो, जिसके कंधे गठीले, वृत्त-गोल एवं वलित-- मुड़े हुए, हृदय की ओर झुके हुए मांसल एवं सुपुष्ट हों, चमड़े के बन्धनों से युक्त मुद्गर आदि उपकरणविशेष या मुष्टिका द्वारा बार-बार कूट कर जमाई हुई गाँठ की ज्यों जिनके अंग पक्के हों, मजबूत हों, जो छाती के बल से-अान्तरिक बल से युक्त हो, जिसकी दोनों भुजाएँ दो एक-जैसे ताड़ व क्षों की ज्यों हों, अथवा अर्गला की ज्यों हों, जो गर्त आदि लांघने में, कूदने में, तेज चलने में, प्रमर्दन में कठिन या कडी वस्तु को चर-चर कर डालने में सक्षम हो, जो छेक-कार्य करने में निष्णात, दक्ष-निषणअविलम्ब कार्य करने वाला हो, प्रष्ठ–वाग्मी, कुशल-क्रिया का सम्यक् परिज्ञाता, मेधावीबुद्धिशील–एक बार सुन लेने या देख लेने पर कार्य-विधि स्वायत्त करने में समर्थ हो, निपुणशिल्पोपगत-शिल्प क्रिया में निपुणता लिये हो-ऐसा कर्मकर लड़का खजूर के पत्तों से बनी बड़ी झाड़ को, दण्डयुक्त-हत्थे युक्त झाड़ को या बांस की सीकों से बनी झाड़ को लेकर राजमहल के प्रांगन, रांजान्तःपुर-रनवास, देव-मन्दिर, सभा, प्रपा–प्याऊ-जलस्थान, आराम-दम्पतियों के रमणोपयोगी नगर के समीपवर्ती बगीचे को, उद्यान-खेलकूद या लोगों के मनोरंजन के निमित्त निर्मित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org