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________________ 274] [अम्यूटीपप्रज्ञप्तिसूत्र तोयधारा, विचित्रा, पुष्पमाला तथा अनिन्दिता नामक, अधोलोकवास्तव्या-अधोलोक में निवास करनेवाली, महत्तरिका-गौरवशालिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ, जो अपने कूटों पर, अपने भवनों में, अपने उत्तम प्रासादों में अपने चार हजार सामानिक देवों,सपरिवार चार महत्तरिकाओं, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा अन्य अनेक भवनपति एवं वानव्यन्तर देवदेवियों से संपरिवृत, नृत्य, गीत, पटुता-कलात्मकतापूर्वक बजाये जाते वीणा, झींझ, ढोल एवं मृदंग की बादल जैसी गंभीर तथा मधुर ध्वनि के बीच विपुल सुखोपभोग में अभिरत होती हैं, तब उनके आसन चलित होते हैं—प्रकम्पित होते हैं / जब वे अधोलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ अपने आसनों को चलित होते देखती हैं, वे अपने अवधिज्ञान का प्रयोग करती हैं। अवधिज्ञान का प्रयोग कर उसके द्वारा भगवान् तीर्थकर को देखती हैं। देखकर वे परस्पर एक-दूसरे को सम्बोधित कर कहती हैं ___ जम्बूद्वीप में भगवान् तीर्थकर उत्पन्न हुए हैं। अतीत--पहले हुई, प्रत्युत्पन्न वर्तमान समय में होने वाली-विद्यमान तथा अनागत-भविष्य में होनेवाली, अंधोलोकवास्तव्या हम आठ महत्तरिका दिशाकुमारियों का यह परंपरागत प्राचार है कि हम भगवान् तीर्थंकर का जन्म-महोत्सव मनाएं, अतः हम चलें, भगवान् का जन्मोत्सव आयोजित करें। यों कहकर उनमें से प्रत्येक अपने प्राभियोगिक देवों को बुलाती हैं, उनसे कहती हैंदेवानुप्रियो ! सैकड़ों खंभों पर अवस्थित सुन्दर यान-विमान की विकुर्वणा करो-वैक्रियल ब्धि द्वारा सुन्दर विमान-रचना करो। दिव्य विमान की विकुर्वणा कर हमें सूचित करो। विमान-वर्णन पूर्वानुरूप है। __ वे पाभियोगिक देव सैकड़ों खंभों पर अवस्थित यान-विमानों की रचना करते हैं और उन्हें सूचित करते हैं कि उनके आदेशानुरूप कार्य संपन्न हो गया है / यह जानकर वे अधोलोकवास्तव्या गौरवशीला दिक्कूमारियाँ हर्षित एवं परितुष्ट होती हैं। उनमें से प्रत्येक अपने-अपने चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार महत्तरिकानों, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा अन्य अनेक देव-देवियों के साथ दिव्य यान-विमानों पर आरूढ होती हैं। प्रारूढ होकर सब प्रकार की ऋद्धि एवं द्युति से समायुक्त, बादल की ज्यों घहराते-गजते मृदंग, ढोल आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ उत्कृष्ट दिव्य गति द्वारा जहाँ तीर्थंकर का जन्मभवन होता है, वहाँ आती हैं / वहाँ आ कर विमानों द्वारा-दिव्य विमानों में अवस्थित वे भगवान् तीर्थकर के जन्मभवन की तीन बार प्रदक्षिणा करती हैं। वैसा कर उत्तर-पूर्व दिशा में-ईशान कोण में अपने विमानों को, जब वे भूतल से चार अंगुल ऊँचे रह जाते हैं, ठहराती हैं। ठहराकर अपने चार हजार सामानिक देवों (सपरिवार चार महत्तरिकायों, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा बहुत से भवनपति एवं वानव्यन्तर देव-देवियों से संपरिक्त वे दिव्य विमानों से नीचे उतरती हैं। नीचे उतरकर सब प्रकार की समृद्धि लिये, जहाँ तीर्थंकर तथा उनकी माता होती है, वहाँ पाती हैं / वहाँ आकर भगवान् तीर्थंकर की तथा उनकी माता की तीन प्रदक्षिणाएं करती हैं, वैसा कर हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे, उन्हें मस्तक पर घुमा कर तीर्थंकर की माता से कहती हैं 'रत्नकुक्षिधारिके-अपनी कोख में तीर्थंकर रूप रत्न को धारण करने वाली ! जगत्प्रदीपदायिके - जगति -जनों के सर्व-भाव-प्रकाशक तीर्थंकर रूप दीपक प्रदान करने वाली ! हम आपको नमस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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