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________________ 144] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अभिंतरओ सरस्स जे देवा। णागासुरा सुवण्णा,) सव्वे मे ते विसयवासित्ति कटु उद्धं वेहासं उसु णिसिरइ परिगरणिगरिअमज्झो, (वाउद्घ असोभमाणकोसेज्जो। चित्तेण सोभए धणुवरेण इंदोव्व पच्चक्खं / ) तए णं से सरे भरहेणं रण्णा उड्ढं बेहासं णिस? समाणे खिप्पामेव बावरि जोअणाई गंता चुल्ल हिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स मेराए णिवइए / तए णं से चुल्लहिमवंतगिरिकुमारे देवे मेराए सरं णिवइ पासइ 2 ता प्रासुरुत्ते रु? (चंडिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिडि पिडाले साहरइ 2 ता एवं वयासी-केस गं भो एस अपस्थिप्रपत्थए दुरंतपंतलक्खणे होणपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जे णं मम इमाए एआणुरूवाए दिव्वाए देविद्धोए दिवाए देवजुईए दिव्वेणं दिव्वाणुभावेणं लद्धाए पत्ताए अभिसमण्णागयाए उष्पि अप्पुस्सुए भवणंसि सरं मिसिरइत्ति कटु सोहासणाप्रो अन्भुटुइ 2 ता जेणेक से णामाहयंके सरे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता तं णामाहयंकं सरं गेण्हइ, णामंकं अणुप्पवाएइ, णामकं अणुप्पवाएमाणस्स इमे एआरवे अब्भस्थिए चितिए पथिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था उप्पण्णे खलु भो ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे णाम राया चाउरंतचक्कवट्टी, तं जोअमेअं तोअपच्चुप्पण्णमणागयाणं चुल्ल हिमवंतगिरिकुमाराणं देवाणं राईणमुबत्थाणीअं करेत्तए / तं गच्छामि णं अहंपि भरहस्स रण्णो उवत्थाणीनं करेमित्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता) पोइदाणं सव्वोसहि च मालं गोसीसचंदणं कडगाणि ( तुडिआणि अ वत्थाणि न प्राभरणाणि अ सरं च णामाहयक) दहोदगं च गेण्हइ 2 ता ताए उक्किट्ठाए जाव' उत्तरेणं चुल्लहिमवंतगिरिमेराए अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसयवासी (अहण्णं देवाणुप्पियाणं प्राणत्तीकिकरे) अहण्णं देवाणुप्पिाणं उत्तरिल्ले अंतवाले (तं पडिच्छंतु णं देवाणुपिया! ममं इमेआरूवं पोइदाणंति कट्ट सम्वोसहिं च मालं गोसीसचंदणं कडगाणि अतुडिआणि अ वत्थाणि प्र प्राभरणाणि अ सरं च णामाहयक दहोदगं च उबणेइ / तए णं से भरहे राया चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स इमेयारूवं पीइदाणं पडिच्छाइ 2 ता चुल्ल हिमवंतगिरिकुमारं देवं) पडिविसज्जेइ / [78] आपात किरातों को विजित कर लेने के पश्चात् एक दिन वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला, आकाश में अधर अवस्थित हुआ। फिर वह उत्तर-पूर्व दिशा में--- ईशान कोण में क्षुद्र-लघु हिमवान् पर्वत की ओर चला। राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को उत्तर-पूर्व दिशा में क्षुद्र हिमवान् पर्वत की ओर जाते देखा / उसने क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत से न अधिक दूर, न अधिक समीप-कुछ ही दूरी पर बारह योजन लम्बा (नौ योजन चौड़ा, उत्तम नगर जैसा) सैन्य-शिविर स्थापित किया। उसने क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव को उद्दिष्ट कर तेले की तपस्या स्वीकार की। आगे का वर्णन मागध तीर्थ के प्रसंग जैसा है। (... .." राजा भरत घोड़े, हाथी, रथ तथा पदातियों से युक्त चातुरंगिणी सेना से घिरा था / बड़े-बड़े योद्धाओं का समूह उसके साथ चल रहा था / चक्ररत्न द्वारा दिखाये गये मार्ग पर वह आगे 1. देखें सुत्र संख्या 34 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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