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________________ तृतीय वक्षस्कार] [145 बढ़ रहा था। हजारों मुकुटधारी श्रेष्ठ राजा उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। उस द्वारा किये गये सिंहनाद के कलकल शब्द से ऐसा भान होता था कि मानो वायु द्वारा प्रक्षुभित महासागर गर्जन कर रहा हो।) राजा भरत उत्तर दिशा की ओर अग्रसर हुआ / जहाँ क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत था, वहाँ पाया। उसके रथ का अग्रभाग क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत से तीन बार स्पृष्ट हुआ। उसने वेगपूर्वक चलते हुए घोड़ों को नियन्त्रित किया। (घोड़ों को नियन्त्रित कर रथ को रोका / धनुष का स्पर्श किया। वह धनुष आकार में अचिरोद्गत बाल-चन्द्र-शुक्ल पक्ष की द्वितीया के चन्द्र जैसा एवं इन्द्रधनुष जैसा था / उत्कृष्ट, गर्वोद्धत भैसे के सुदृढ, सधन सींगों की ज्यों निविड-निश्छिद्र पुद्गल-निष्पन्न था। उस धनुष का पृष्ठभाग उत्तम नाग, महिष-शृग, श्रेष्ठ कोकिला, भ्रमरसमूह तथा नील के सदृश उज्ज्वल काली कान्ति से युक्त, तेज से जाज्वल्यमान एवं निर्मल था। निपूण शिल्पी द्वारा चमकाये गये, देदीप्यमान मणियों और रत्नों की घंटियों के समह से वह परिवेष्टित था। बिजली की तरह जगमगाती किरणों से युक्त, स्वर्ण से परिबद्ध तथा चिह्नित था। दर्दर एवं मलय पर्वत के शिखर पर रहनेवाले सिंह के अयालों तथा चवरी गाय के पूछ के बालों के उस पर सुन्दर, अर्धचन्द्राकार बन्ध लगे थे। काले, हरे, लाल, पीले तथा सफेद स्नायुगों-नाड़ीतन्तुओं से उसकी प्रत्यंचा बँधी थी। शत्रुओं के जीवन का विनाश करने में वह सक्षम था। उसकी प्रत्यंचा चंचल थी / राजा ने वह धनुष उठाया / उस पर बाण चढ़ाया। बाण की दोनों कोटियाँ उत्तम वज्र-श्रेष्ठ हीरों से बनी थीं। उसका मुख-सिरा वन की ज्यों अभेद्य था। उसका पुखपीछे का भाग स्वर्ण में जड़ी हुई चन्द्रकान्त आदि मणियों तथा रत्नों से सुसज्ज था। उस पर अनेक मणियों और रत्नों द्वारा सुन्दर रूप में राजा भरत का नाम अंकित था / भरत ने वैशाख–धनुष चढ़ाने के समय प्रयुक्त किये जाने वाले विशेष पाद-न्यास में स्थिर होकर) उस उत्कृष्ट बाण को कान तक खींचा (और वह यों बोला-मेरे द्वारा प्रयुक्त बाण के बहिर्भाग में तथा आभ्यन्तर भाग में अधिष्ठित नागकुमार, असुरकुमार, सुपर्णकुमार, आदि देवो ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। प्राप सुनें-स्वीकार करें।) ऐसा कर राजा भरत ने वह बाण ऊपर आकाश में छोड़ा / मल्ल जब अखाड़े में उतरता है तब जैसे वह कमर बाँधे होता है, उसी प्रकार भरत युद्धोचित वस्त्र-बन्ध द्वारा अपनी कमर बाँधे था। (उसका कौशेय-पहना हुआ वस्त्र-विशेष हवा से हिलता हुआ बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। विचित्र, उत्तम धनुष धारण किये वह साक्षात् इन्द्र की ज्यों सुशोभित हो रहा था / ) राजा भरत द्वारा ऊपर आकाश में छोड़ा गया वह बाण शीघ्र ही बहत्तर योजन तक जाकर क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव की मर्यादा में-सीमा में तत्सम्बद्ध समुचित स्थान में गिरा / क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव ने बाण को अपने यहाँ गिरा हा देखा तो वह तत्क्षण क्रोध से लाल हो गया। (रोषयुक्त हो गया -कोपाविष्ट हो गया, प्रचण्ड-विकराल हो गया, क्रोधाग्नि से उद्दीप्त हो गया। कोपाधिक्य से उसके ललाट पर तीन रेखाएँ उभर आई। उसकी भृकुटि तन गई / वह बोला-अप्रार्थित-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को चाहने वाला, दुःखद अन्त तथा अशुभ लक्षण वाला, पुण्य चतुर्दशी जिस दिन हीन--असम्पूर्ण थी-घटिकाओं में अमावस्या आ गई थी, उस अशुभ दिन में जन्मा हुआ, लज्जा, श्री-शोभा से परिवजित वह कौन अभागा है, जिसने उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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