________________ 146] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र देवानुभाव से-दैविक प्रभाव से लब्ध, प्राप्त, स्वायत्त मेरी ऐसी दिव्य देवऋद्धि, देवद्यति पर प्रहार करते हुए, मौत से न डरते हए मेरे यहाँ बाण गिराया है ! यों कहकर वह अपने सिंहासन से उठा और जहाँ वह नामांकित बाण पड़ा था, वहाँ पाया / वहाँ आकर उस बाण को उठाया, नामांकन देखा / देखकर उसके मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआ—जम्बूद्वीप के अन्तर्वर्ती भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है / अत: अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती क्षुद्र हिमवान-गिरिकुमार देवों के लिए यह उचित है-परंपरागत व्यवहारानुरूप है कि वे (चक्रवर्ती) राजा को उपहार भेंट करें / इसलिए मैं भी जाऊँ, राजा को उपहार भेंट करू। यों विचार कर) उसने प्रीतिदान-भेंट के रूप में सर्वोषधियाँ, कल्पवृक्ष के फूलों की माला, गोशीर्ष चन्दन--हिमवान् कुज में उत्पन्न होने वाला चन्दन-विशेष, कटक (श्रुटित, वस्त्र, आभूषण, नामांकित बाण), पद्मद्रह-पद्म नामक (ह्रद) का जल लिया। यह सब लेकर उत्कृष्ट तीव्र गति द्वारा वह राजा भरत के पास आया। आकर बोला- मैं क्षुद्र हिमवान् पर्वत की सीमा में देवानुप्रिय के—आपके देश का बासी हूँ। मैं आपका आज्ञानुवर्ती सेवक हूँ। आपका उत्तर दिशा का अन्तपाल हूँ-उपद्रव-निवारक हूँ। अतः देवानुप्रिय ! आप मेरे द्वारा उपहृत भेंट स्वीकार करें। यों कहकर उसने सर्वोषधि, माला, गोशीर्ष चन्दन, कटक, त्रुटित, वस्त्र, आभूषण, नामांकित बाण तथा पदमहद का जल भेंट किया। राजा भरत ने क्षुद्र हिमवान-गिरिकूमार देव द्वारा इस प्रकार भेंट किये गये उपहार स्वीकार किये। स्वीकार करके क्षुद्र हिमवान्-गिरिकुमार देव को विदा किया। ऋषभकूट पर नामांकन 76. तए णं से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ 2 ता रहं परावत्तेइ 2 ता जेणेव उसहकूडे तेणेव उवागच्छइ 2 ता उसहकूडं पव्वयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ 2 ता तुरए णिगिण्हइ 2 ता रहं ठवेइ 2 ता छत्तलं दुवालसंसिनं अटुकण्णिअं अहिगरणिसंठिनं सोवण्णि कागणिरयणं परामुसइ 2 ता उसभकूडस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्लसि कडगंसि णामगं पाउडेइ प्रोसप्पिणीइमोसे, तइपाए समाए पच्छिमे भाए। प्रहमंसि चक्कवट्टी, भरहो इन नामधिज्जेणं // 1 // अहमंसि पढमराया, प्रहयं भरहाहियो परवरिंदो। णस्थि महं पडिसत्तू, जिअं मए भारहं वासं // 2 // इति कटु णामगं प्राउडेइ, णामगं प्राउडित्ता रहं परावत्तेइ 2 ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे, जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ 2 ता (तुरए णिगिण्हइ 2 ता रहं ठवेइ 2 ता रहाम्रो पच्चोरहति 2 ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता मज्जणघरं अणुपविसइ 2 ता जाव ससिव्व पिअदंसणे णरवई मज्जणघरानो पडिणिक्खमइ 2 त्ता जेणेव भोप्रणमंडवे तेणेव उवागच्छइ 2 ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ 2 ता भोप्रणमंडवाओ पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे णिसीप्रइ 2 ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीयो सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org