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________________ तृतीय वक्षस्कार] . [147 देवाणुप्पिया ! उस्सुक्कं उक्करं जाव चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्टाहिलं महामहिमं करेह २त्ता मम एप्रमाणत्तिअं पच्चप्पिण्णह, तए णं ताम्रो अट्ठारस सेणिप्पसेणीयो भरहेणं रण्णा एवं वुत्ताओ समाणीनो हट्ठ जाव करेंति 2 ता एप्रमाणत्तिनं पच्चप्पिणंति) चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए पाउहघरसालानो पडिणिक्खमइ 2 सा जाव' दाहिणि दिसि वेअड्डपन्वयाभिमुहे पयाते प्रावि होत्था / [79] क्षुद्र हिमवान् पर्वत पर विजय प्राप्त कर लेने के पश्चात् राजा भरत ने अपने रथ के घोड़ों को नियन्त्रित किया-दाईं ओर के दो घोड़ों को लगाम द्वारा अपनी ओर खींचा तथा बाई प्रोर के दो घोड़ों को आगे किया-ढीला छोड़ा / यों उन्हें रोका। रथ को वापस मोड़ा / वापस मोड़कर जहाँ ऋषभकूट पर्वत था, वहाँ आया / वहाँ आकर रथ के अग्र भाग से तीन बार ऋषभकूट पर्वत का स्पर्श किया। तीन बार स्पर्श कर फिर उसने घोड़ों को खड़ा किया, रथ को ठहराया। रथ को ठहराकर काकणी रत्न का स्पर्श किया / वह (काकणी) रत्न चार दिशाओं तथा ऊपर, नीचे छह तलयुक्त था। ऊपर, नीचे एवं तिरछे---प्रत्येक अोर वह चार-चार कोटियों से युक्त था, यों बारह कोटि युक्त था। उसकी आठ कणिकाएँ थीं। अधिकरणी--स्वर्णकार लोह-निर्मित जिस पिण्डी पर सोने, चाँदी आदि को पीटता है, उस पिण्डी के समान आकारयुक्त था, सौणिक था--अष्टस्वर्णमानपरिमाण था। राजा ने काकणी रत्न का स्पर्श कर ऋषभकूट पर्वत के पूर्वीय कटक में-मध्य भाग में इस प्रकार नामांकन किया इस अवसर्पिणी काल के तीसरे प्रारक के पश्चिम भाग में---तीसरे भाग में मैं भरत नामक चक्रवर्ती हुआ हूँ // 1 // मैं भरतक्षेत्र का प्रथम राजा-प्रधान राजा हूँ, भरतक्षेत्र का अधिपति हँ, नरवरेन्द्र है। मेरा कोई प्रतिशत्रु-प्रतिपक्षी नहीं है। मैंने भरतक्षेत्र को जीत लिया है / / 2 // इस प्रकार राजा भरत ने अपना नाम एवं परिचय लिखा। वैसा कर अपने रथ को वापस मोड़ा / वापस मोड़कर, जहाँ अपना सैन्य-शिविर था, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ पाया। (वहाँ आकर घोड़ों को नियन्त्रित किया, रथ को ठहराया, रथ से नीचे उतरा। नीचे उतर कर, जहाँ स्नानघर था, वहाँ पाया, स्नानघर में प्रविष्ट हुआ / स्नानादि सम्पन्न कर, चन्द्र की ज्यों प्रियदर्शन-प्रीतिप्रद दिखाई देनेवाला राजा भरत स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकल कर वह भोजन-मंडप में पाया, सुखासन से बैठा अथवा शुभ-उत्तम आसन पर बैठा, तेले का पारणा किया। पारणा कर, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, सिंहासन था, वहाँ पाया। पूर्व की ओर मूह कर सिंहासन पर बैठा / अपने अठारह श्रेणि-प्रवेणि जनों को बुलाया, उनसे कहा—देवानुप्रियो ! मेरी ओर से यह घोषणा करो कि क्षुद्र हिमवान्-गिरिकुमार देव को विजय करने के उपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित किया जाए। इन आठ दिनों में राज्य में कोई भी क्रय-विक्रय आदि 1. देखें सूत्र 50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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