SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय वक्षस्कार] [177 तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाह लेसाहि विसुज्झमाणीहि 2 ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स कम्माणं खएणं कम्मर यविकिरणकरं अपुग्वकरणं पविट्ठस्स अणंते प्रणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पणे / तए णं से भरहे केवली सयमेवाभरणालंकारं ओमुअइ 2 त्ता सयमेव पंचमुट्ठिअं लोअं करेइ 2 ता पायंसघरानो पडिणिक्खमइ 2 ता अंतेउरमझमझेणं णिग्गच्छइ 2 त्ता दसहिं रायवरसहस्सेहि सद्धि संपरिवडे विणीअं रायहाणि मज्झमझेणं णिग्गच्छइ 2 ता मज्भदेसे सुहंसुहेणं विहरइ 2 ता जेणेव अट्ठावए पव्वए तेणेव उवागच्छइ 2 ता अट्ठावयं पव्वयं सणिअं 2 दुरूहइ 2 ता मेघघणसण्णिकासं देवसण्णिवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ 2 ता संलेहणा-झूसणा-झसिए भत्त-पाण-पडिप्राइक्खए पाओवगए कालं प्रणवकंखमाणे 2 विहरइ। तए गं से भरहे केवली सत्तरि पुव्वसयसहस्साई कुमारवासमझे वसित्ता, एगं वाससहस्सं मंडलिय-राय-मज्झे वसित्ता, छ पुग्वसयसहस्साई वाससहस्सूणगाइं महारायमज्झे वसित्ता, तेसीइ पुवसयसहस्साई अगारवासमझे वसित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं देसूणगं केवलि-परियायं पाउणित्ता तमेव बहुपडिपुण्णं सामन्न-परियायं पाउणित्ता चउरासीइ पुश्वसयसहस्साई सव्वाउअं पाउणित्ता मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं सवणेणं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं खीणे वेअणिज्जे आउए णामे गोए कालगए वीइक्कते समुज्जाए छिण्णजाइ-जरा-मरण-बन्धणे सिद्ध बद्ध मुत्ते परिणिन्वुडे अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे। [87] किसी दिन राजा भरत, जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया / आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुआ, स्नान किया। मेघसमूह को चीर कर बाहर निकलते चन्द्रमा के सदृश प्रियदर्शन-देखने में प्रिय एवं सुन्दर लगने वाला राजा स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ श्रादर्शगृहकांच से निर्मित भवन-शीशमहल था, जहाँ सिंहासन था, वहाँ पाया। आकर पूर्व की ओर मुंह किये सिंहासन पर बैठा / वह शीशमहल में शीशों पर पड़ते अपने प्रतिबिम्ब को बार बार देखता रहा। __शुभ परिणाम- अन्तःपरिणति, प्रशस्त-उत्तम अध्यवसाय-मन:संकल्प, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं-पुद्गल द्रव्यों के संसर्ग से जनित आत्मपरिणामों में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए विशुद्धिक्रम से ईहा-सामान्य ज्ञान के अनन्तर विशेष निश्चयार्थ विचारणा, अपोह विशेष निश्चयार्थ प्रवृत्त विचारणा द्वारा तदनुगुण दोष-चिन्तन प्रसूत निश्चय, मार्गण तथा गवेषण ---निरावरण परमात्मस्वरूप के चिन्तन, अनुचिन्तन, अन्वेषण करते हुए राजा भरत को कर्मक्षय से-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय- इन चार घाति कमों के-आत्मा के मूल गुणों-केवलज्ञान तथा केवलदर्शन ग्रादि का घात या अवरोध करनेवाले कर्मों के क्षय के परिणामस्वरूप, कर्म-रज के निवारक अपूर्वकरण में--शुक्लध्यान में अवस्थिति द्वारा अनन्त-अन्तरहित, कभी नहीं मिटने वाला, अनुत्तर–सर्वोत्तम, निर्व्याघात-बाधा-रहित, निवारण-यावरण-रहित, कृत्स्न सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुए। तब केवली सर्वज्ञ भरत ने स्वयं ही अपने आभूषण, अलंकार उतार दिये। स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया। वे शीशमहल से प्रतिनिष्क्रान्त हुए। प्रतिनिष्क्रान्त होकर अन्तःपुर के बीच से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy