________________ 178] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र होते हुए राजभवन से बाहर निकले / अपने द्वारा प्रतिबोधित दश हजार राजाओं से संपरिवृत्त केवली भरत विनीता राजधानी के बीच से होते हुए बाहर चले गये। मध्यदेश में--कोशलदेश में सुखपूर्वक विहार करते हुए वे जहाँ अष्टापद पर्वत था, वहाँ आये। वहाँ आकर धीरे-धीरे अष्टापद पर्वत पर चढ़े / पर्वत पर चढ़कर सघन मेघ के समान श्याम तथा देव-सन्निपात-रम्यता के कारण जहाँ देवों का आवागमन रहता था, ऐसे पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर उन्होंने वहाँ संलेखना-शरीर-कषाय-क्षयकारी तपोविशेष स्वीकार किया, खान-पान का परित्याग किया, पादोपगत-कटी वृक्ष की शाखा की ज्यों जिसमें देह को सर्वथा निष्प्रकम्प रखा जाए, वैसा संथारा अंगीकार किया। जीवन और मरण की आकांक्षा-कामना न करते हुए वे आत्माराधना में अभिरत रहे। केवली भरत सतहत्तर लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहे, एक हजार वर्ष तक मांडलिक राजा के रूप में रहे, एक हजार वर्ष कम छह लाख पूर्व तक महाराज के रूप में---चक्रवर्ती सम्राट् के रूप में रहे / वे तियासी लाख पूर्व तक गृहस्थवास में रहे / अन्तर्मुहूर्त कम एक लाख पूर्व तक वे केवलिपर्याय-सर्वज्ञावस्था में रहे। एक लाख पूर्व पर्यन्त उन्होंने बहु-प्रतिपूर्ण-सम्पूर्ण श्रामण्य-पर्याय'-- श्रमण-जीवन का, संयमी जीवन का पालन किया। उन्हान चारासी लाख पूर्व का समग्र आयुष्य भोगा। होंने एक महीने के चौविद्वार-अन्न. जल आदि ग्राहार वजित अनशन द्वारा वेदनीय, प्रायुष्य, नाम तथा गोत्र-इन चार भवोपनाही, अधाति कर्मों के क्षीण हो जाने पर श्रवण नक्षत्र में जब चन्द्र का योग था, देह-त्याग किया। जन्म, जरा तथा मृत्यु के बन्धन को उन्होंने छिन्न कर डाला--- तोड़ डाला। वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वत, अन्तकृत्-संसार के-संसार में आवागमन के नाशक तथा सब प्रकार के दुःखों के प्रहाता हो गये। विवेचन-राजा भरत शीशमहल में सिंहासन पर बैठा शीशों में पड़ते हुए अपने प्रतिबिम्ब को निहार रहा था। अपने सौन्दर्य, शोभा एवं रूप पर वह स्वयं विमुग्ध था। अपने प्रतिबिम्बों को निहारते-निहारते उसकी दृष्टि अपनी अंगुली पर पड़ी। अंगुली में अंगूठी नहीं थी। वह नीचे गिर पड़ी थी। भरत ने अपनी अंगुली पर पुनः दृष्टि गड़ाई। अंगूठी के बिना उसे अपनी अंगुली सुहावनी नहीं लगी / सूर्य की ज्योत्स्ना में चन्द्रमा की युति जिस प्रकार निष्प्रभ प्रतीत होती है, उसे अपनी अंगुली वैसी ही लगी। उसके सौन्दर्याभिमानी मन पर एक चोट लगी। उसने अनुभव किया-अंगुली की कोई अपनी शोभा नहीं थी, वह तो अंगठी की थी, जिसके बिना अंगली का शोभारहित रूप उदघाटित हो गया। भरत चिन्तन की गहराई में पैठने लगा। उसने अपने शरीर के अन्यान्य आभूषण भी उतार दिये / सौन्दर्य-परीक्षण की दृष्टि से अपने प्राभूषणरहित अंगों को निहारा / उसे लगा--चमचमाते स्वर्णाभरणों तथा रत्नाभरणों के अभाव में वस्तुतः मेरे अंग फीके, अनाकर्षक लगते हैं / उनका अपना सौन्दर्य, अपनी शोभा कहाँ है ? भरत की चिन्तन-धारा उत्तरोत्तर गहन बनती गई। शरीर के भीतरी मलीमस रूप पर 1. केवलज्ञान को उत्पत्ति से पहले अन्तर्मुहूर्त का भाव-चारित्र जोड़ देने से एक लाख पूर्व का काल पूर्ण हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org