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________________ 176] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र सव्वरयणसव्वसमिइसमग्गे संपुण्णमणोरहे हयामित्तमाणमहणे पुवकयतवप्पभावनिविट्ठसंचित्रफले भुजइ माणुस्सए सुहे भरहे णामधेज्जेत्ति / [86 राजा भरत चौदह रत्नों, नौ महानिधियों, सोलह हजार देवताओं, बत्तीस हजार राजाओं, बत्तीस हजार ऋतुकल्याणिकाओं, बत्तीस हजार जनपदकल्याणिकाओं, बत्तीस-बत्तीस पात्रों, अभिनेतब्य क्रमोपक्रमों से अनुबद्ध बत्तीस हजार नाटकों-नाटक-मण्डलियों, तीन सौ साठ सूपकारों, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि-जनों, चौरासी लाख घोड़ों, चौरासी लाख हाथियों, चौरासी लाख रथों, छियानवै करोड़ मनुष्यों--पदातियों, बहत्तर हजार पुरवरों-महानगरों, बत्तीस हजार जनपदों, छियानवै करोड़ गाँवों, निन्यानवै हजार द्रोणमुखों, अड़तालीस हजार पत्तनों, चौबीस हजार कर्वटो, चौबीस हजार मडम्बों, बीस हजार आकरों, सोलह हजार खेटों, चौदह हजार संवाधों, छप्पन अन्तरोदकों-जलके अन्तर्वर्ती सन्निवेश-विशेषों तथा उनचास कुराज्यों-भील आदि जंगली जातियों के राज्यों का, विनीता राजधानी का, एक अोर लघु हिमवान् पर्वत से तथा तीन और समुद्रों से मर्यादित समस्त भरतक्षेत्र का, अन्य अनेक माण्डलिक राजा, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुष, तलवर, सार्थवाह आदि का आधिपत्य, पौरोवृत्य-अग्रेसरत्व, भर्तृत्व-प्रभुत्व, स्वामित्व, महत्तरत्व-अधिनायकत्व, आज्ञेश्वरत्व सैनापत्य-जिसे आज्ञा देने का सर्वाधिकार होता है, वैसा सैनापत्य-सेनापतित्व-इन सबका सर्वाधिकृत रूप में पालन करता हुआ, सम्यक् निर्वाह करता हुआ राज्य करता था। राजा भरत ने अपने कण्टकों-गोत्रज शत्रुओं की समग्र सम्पत्ति का हरण कर लिया, उन्हें विनष्ट कर दिया तथा अपने अगोत्रज समस्त शत्रुओं को मसल डाला, कुचल डाला / उन्हें देश से निर्वासित कर दिया। यों उसने अपने समग्र शत्रुओं को जीत लिया। राजा भरत को सर्वविध औषधियाँ, सर्वविध रत्न तथा सर्वविध समितियाँ-ग्राभ्यन्तर एवं वाह्य परिषदें संप्राप्त थीं। अमित्रों-शत्रुओं का उसने मान-भंग कर दिया। उसके समस्त मनोरथ सम्यक् सम्पूर्ण थेसम्पन्न थे। जिसके अंग श्रेष्ठ चन्दन से चचित थे, जिसका वक्षःस्थल हारों से सुशोभित था, प्रीतिकर था, जो श्रेष्ठ मुकुट से विभूषित था, जो उत्तम, बहुमूल्य आभूषण धारण किये था, सब ऋतुओं में खिलनेवाले फूलों की सुहावनी माला से जिसका मस्तक शोभित था, उत्कृष्ट नाटक प्रतिबद्ध पात्रोंनाटक-मण्डलियों तथा सुन्दर स्त्रियों के समूह से संपरिक्त वह राजा भरत अपने पूर्व जन्म में प्राचीर्ण तप के, संचित निकाचित-निश्चित रूप में फलप्रद पुण्य कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य जीवन के सुखों का परिभोग करने लगा। कैवल्योदभव 27. तए णं से भरहे राया अण्णया कयावि जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ 2 ता जाव' ससिव्व पियदंसणे णरवई मज्जणघरानो पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव प्रादंसघरे जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 ता सोहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे णिसोमइ 2 ता पासघरंसि अत्ताणं देहमाणे 2 चिट्टइ। 1. देखें सूत्र संख्या 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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