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________________ तृतीय वक्षस्कार] [175 किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया। विदा कर वह अपने श्रेष्ठ- उत्तम महल में गया ! वहाँ विपुल भोग भोगने लगा। चतुर्दश रत्न : नव निधि : उत्पत्तिक्रम 85. भरहस्स रण्णो चक्करयणे 1 दंडरयणे 2 असिरयणे 3 छत्तरयणे 4 एते णं चत्तारि एगिदियरयणे आउहघरसालाए समुप्पण्णा। चम्मरयणे 1 मणिरयणे 2 कागणिरयणे 3 णव य महाणिहओ एए णं सिरिघरंसि समुप्पण्णा। सेणावइरयणे 1 गाहावइरयणे 2 बद्धइरयणे 3 पुरोहिअरयणे 4 एए णं चत्तारि मणुअरयणा विणीनाए रायहाणीए समुप्पण्णा / प्रासरयणे 1 हत्थिर यणे 2 एए णं दुवे पंचिदिअरयणा वेश्रद्धगिरिपायमूले समुप्पण्णा। सुभद्दा इत्थीरयणे उत्तरिल्लाए विज्जाहरसेढोए समुप्पण्णे। [85] चक्ररत्न, दण्डरत्न, असिरत्न तथा छत्ररत्न राजा भरत के ये चार एकेन्द्रिय रत्न प्रायुधगृहशाला में शस्त्रागार में उत्पन्न हुए / चर्मरत्न, मणिरत्न, काकणीरत्न तथा नौ महानिधियां, श्रीगृह में-भाण्डागार में उत्पन्न हुए। सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकि रत्न तथा पुरोहितरत्न, ये चार मनुष्यरत्न, विनीता राजधानी में उत्पन्न हुए। अश्वरत्न तथा हस्तिरत्न, ये दो पञ्चेन्द्रियरत्न वैताढय पर्वत की तलहटी में उत्पन्न हुए / सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न उत्तर विद्याधरश्रेणी में उत्पन्न हुआ। भरत का राज्य : वैभव : सुख 86. तए णं से भरहे राया चउदसण्हं रयणाणं णवण्हं महाणिहीणं सोलसण्हं देवसाहस्सीणं बत्तोसाए रायसहस्साणं बत्तीसाए उडुकल्लाणिग्रासहस्साणं बत्तीसाए जणवयकल्लाणिप्रासहस्साणं बत्तीसाए बत्तीसइबद्धाणं णाडगसहस्साणं तिण्हं सट्ठीणं सूवयारसयाणं अट्ठारसण्हं सेणिप्पसेणीणं चउरासीइए आससयसहस्साणं चउरासीइए दंतिसयसहस्साणं चउरासीइए रहसयसहस्साणं छण्णउइए मणुस्सकोडीणं बावत्तरीए पुरवरसहस्साणं बत्तीसाए जणवयसहस्साणं छण्णउइए गामकोडोणं णवणउइए दोणमुहसहस्साणं अडयालीसाए पट्टणसहस्साणं चउन्वीसाए कब्बडसहस्साणं चउव्वीसाए मडंबसहस्साणं वीसाए प्रागरसहस्साणं सोलसण्हं खेडसहस्साणं चउदसण्हं संवाहसहस्साणं छप्पण्णाए अंतरोदगाणं एगणपण्णाए कुरज्जाणं विणीपाए रायहागीए चुल्लहिमवंतगिरिसागरमेरागस्स केवलकप्पस्स भरहस्स वासस्स अणेसि च बहूणं राईसरतलवर जाव' सत्थवाहप्पभिईणं पाहेवच्चं पोरेवच्चं भट्टित्तं सामित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे ओहयणिहएसु कंटएसु उद्धिनमलिएसु सव्वसत्तुसु णिज्जिएसु भरहाहिवे णरिंदे वरचंदणचच्चिअंगे वरहाररइअवच्छे वरमउडविसिट्टए वरवत्थभूसणधरे सव्वोउअसुरहिकुसुमधरमल्लसोभिप्रसिरे वरणाडगनाडइज्जवरइस्थिगुम्मसद्धि संपरिवुडे सम्वोसहि१. देखें सूत्र 44 -- - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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